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15 बरस से ज्यादा हो गए

15  बरस से ज्यादा हो गए मां से बिछड़े हुए बतियाए हुए, उसकी लोरी सुने हुए 15 बरस से ज्यादा... मां, अपने मैके गई थी मेरे मामा के यहां अपनी मां के पास लेकिन अगली ही सुबह उसने लौटने वाली ट्रेन पकड़ ली हमारे लिए... लेकिन, 15 बरस बाद भी हम रास्ता देख रहे है मां के लौटकर आने को.. मैं चाहता हूं.. गर्मी की भरी दोपहरी में मां के साथ झप्पर के नीचे बैठकर जात्ता पीसना दाल और गेंहू की घानी डालना और भूल जाने पर, चौंककर कहना, मां घानी डालो मां के पैरों पर पैर चढ़ाकर जात्था खींचना.. और मां की लोरी पर जात्ते के साथ झूमना..मैं चाहता हूं... 15 बरस बाद आज भी.. मां, मैं चाहता हूं तुम्हारी आवाज में.. सोहर और शादी के गीत सुनना 15 बरस बाद आज भी ठीक उसी तरह जैसे, मैं रूठ जाता था खाने से मना कर देता और तुम गाती.. मेरी शादी की कल्पना कर मैं पीड़े पर बैठा रीझता तुम गाती रहती.. और, मैं खाते हुए कहता कोई और सुनाओ.. तुम मुस्कुराती.. मैं रीझता.. आंखें भर आई आज 15 बरस बाद.. इतने साल..गुजर गए   एक बच्चे के लिए 15 बरस का समय,

मां, मुझे आंचल ओढ़ा देती

मैं कितनी भी लंबी चादर खरीद लूं ये मां का आंचल नहीं हो सकती. इसके जड़ीदार कोने और रंग  मां की साड़ी पर बिखरी पत्तियों की छींट और उसके रंग जैसे नहीं है. मां अपने आंचल से ढंक देती थी सूरज को, जब मैं सोना चाहता था. धूप, मुझे जगा नहीं पाती थी जब मैं मां के आंचल तले छुप जाता था. मां का स्पर्श बहुत गर्माहट भरा था. जब वह मुझे चिपका लेती अपने सीने से,  माघ की ठंड में  जब मैं नहाने से मना करता. मैं अक्सर मां से लिपट कर सोता  दोनों हाथों से उसे दबोच लेता. जब मैं भयावह सपने देखता मां, मुझे आंचल ओढ़ा देती. मैं गर्माहट भरी नींद में डूब जाता मां, मेरी पीठ थपथपा देती.

तुम्हारे साथ बैठे हुए...

मैं जिसे छोड़ आया था कहीं और.. वो यहां मौजूद रहता है तुम्हारे होते हुए भी जब मैं तुम्हारे संग तन्हा होता हूं मुझे अपने फैसले पर विस्मय होता है चार लोगों के साथ बैठे हुए तन्हा मिलता हूं.. मेरे पास कहानियां है..अपनी लेकिन सुनने को कोई तैयार नहीं ना तुम..ना कोई और जिनके नाम से जमाना मुझे पहचानता है क्योंकि कहानियों में तुम भी हो मौजूद लोगों के किस्से है और मैं भी हूं.. लेकिन मेरे अपने ?..जिन्हें जमाना मेरा कहता है सवाल वाजिब है..ये मेरे अपने दरअसल, मेरे अनुभव है..सुख दुख की थाली में बंटे हुए तुम चुन लो.. अपनी मर्जी से अपनी थाली जो तुम्हें पसंद हो अपने स्वाद के मुताबिक जो तुम चाहो.. शायद मैं तुम्हें मिल जाऊं नमकीन आंसू की तरह.. खुशी की मिठास लिए फिर भी मैं तन्हा रहूंगा तुम्हारे चुनने के बावजूद क्योंकि तुमने अपनी थाली चुनी है मुझे नहीं.. खुशी और गम से भरी मेरी कहानियां है जख्म और कोमल एहसासों से बुनी हुई इन्हें मैं अलग नहीं कर सकता मैं अब भी तन्हा हूं.. तुम्हारी खाने की टेबल पर तुम्हारे साथ बैठे हुए...

They Ask for Bread वे रोटी मांग रहे हैं

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इलाके के विकास के लिए सरकार ने दी है परमिशन जमीन की खुदाई के लिए जंगल को काटने जल को सुखाने के लिए ताकि विकास का पहिया तेजी से घूम सकें इलाके में विकास हो सुरसा के मुंह की तरह सरकार को लोगों की परवाह नहीं वे मर रहे है भूख से, गरीबी से सरकार की गोलियों से क्योंकि वे रोटी मांग रहे हैं चिल्लाते और चीखते हुए क्योंकि उनके पेट में आग लगी हैं सरकार, संसद में प्रस्ताव पास कर रही हैं दो रुपए किलो अनाज देंगे बारहों महीने, ताकि कोई भूखा ना सोए सरकार अपने कानों पर कनटोपा लगाए है अपने कारिंदों की चापलूसी सुनने के लिए उन्हें चीखते लोगों की आवाजें सुनाई नहीं देती। सरकार खुश है, भूखों के फटे कपड़े डिजायनर बनाने की बात करते है इलाके में शॉपिंग मॉल खोलने की घोषणा करते है उन्हें भूख दिखाई नहीं देती अनजानी बीमारियों से मर रहे लोगों की उन्हें परवाह नहीं, सैंकड़ों मासूम मर जाते है अपनी जननी की गोद में खामोश.. सरकार बेताब है फटे कपड़ों पर वादों के अस्तर लगाने को चीखती जुबानों पर ताले लगाने को हर गांव को बस्तर बनाने को नेता, सेना और शातिर गिद्धों की निगाह में सबसे बड

वो शब्द, जो जुबां से निकले और असर छोड़ गए..

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तुम्हारी जिंदगी में कोई है.. ये सवाल उतना ही अनसुलझा है. .जितना मैं सुलझा हुआ हूं.

सूखे पत्तों पर बूंदों की तरह

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सावन की पहली बारिश मेरे बगीचे में उतरी सूखे पत्तों पर बूंदों की तरह प्यासी धरती के आंचल पर रंगीले छींटों की तरह.. पेड़ों और खेतों के उस पार घने मेघ सुस्ता रहे है जमकर बरसने के बाद जोर जोर...से कड़कती बिजली कह रही है घनघोर मेघों से बरसने को.. बगीचे में भीनी-भीनी सी सुगंध मुस्कुरा रही है.. टहनियों तले, हवाओं के संग बादलों के आने की खुशी में जो उसके होने की वजह है भीगी हुई धरती की तरह... बादलों के जाने के बाद हर गली से बूंदे दौड़ रही है बहते पानी की शक्ल में.. पूरे प्रवाह के साथ.. उड़ते बादलों को पकड़ने के लिए जो उन्हें छोड़ गए है.. सभ्य, असभ्य शहरों और  अनजाने गांवों में.. ब्याहीं हुई बेटी की तरह..  

मेरा अक्स तैरता है..

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इन दो तस्वीरों को देख जुबां पे कुछ शब्द यूं मचल उठे... पानी की मचलती तरंगों में मेरा अक्स तैरता है आ..कश्ती के सहारे महल के मुंडेर पे चले किसे चाह नहीं होती महल के साए में जल विहार की.. जलमहल, जयपुर राजस्थान भ्रमण के दौरान...23-06-2012 फोटो साभारः मनोज श्रेष्ठ

कहानियों का गट्ठर

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तुम जब भी आना मेरे पास कहानियों का गट्ठर साथ लेते आना जिसमें शरारतें हो, चालाकियां हो.. और बेईमानियां भी जिससे मेरी तन्हाइयों का साया तुम पर ना पड़े.. तुम्हारी कहानियों के किरदारों को मैं रखूंगा अपने खाली पड़े कमरों में जिनमें खामोशियां बसती है भयावह अकेलेपन के साथ चुप्पी ओढ़े हुए.. धुएं के गुबार सी उठती है खामोशियां और पसर जाती है पूरे मुहल्ले में जैसे नीले आसमां को ढक लेता है काला काला धुआं...

शब्दों का स्वेटर

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सैंकड़ों मीटर में फैले रेलवे स्टेशन पर photo courtesy_google धूल भरी हवाओं के बाद बारिश का सिलसिला प्लेटफॉर्म पर टिमटिमाती बत्तियों की रोशनी में बादलों ने चौपाल लगाई और, धीमी रोशनी के उजियारे में रात ने स्याह चोला पहना हल्की फुहारों की हवाओं संग बहने की जिद नंगे फर्श पर सोए लोगों के पास मैली और फटी चादरें थीं चुभती हुई उदास रात में शब्दों का स्वेटर बुनना गरमाहट भरा था.. हिसार, 19 मई, 2012

मैं चलता रहा..

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ये कुछ ऐसा था जैसे, खेत की पगडंडियों पर चलना गहरे, उथले और गड्ढ़ों से भरे मेड़ पर चलना पावों में ओस की शीतलता का अहसास होना लेकिन, नाजुक दूबों की शरारत भरी चुभन ना थी हल्की फुहारों के बाद सपाट कठोर पत्थरों की तरावट में मैं चलता रहा.. दूर जुते हुए खेतों में कुछ बच्चे मिट्टी के ढेलों पर बैठे थे उनके हाथों में बांस की छिटकुन थी वे निशाना साध रहे थे चट्टान नुमा बड़े ढेलों पर कुछ भैंसे बबूल की छाल खा रही थी मैं चलता रहा... वह  पीपल का पेड़ जो बचपन में बहुत डराता था मुर्दों को पानी पिलाता था अपने गले में बंधे घंट से जिससे सूत के सहारे पानी की बूंदे टपकती टप टप टप... सर मुड़ाए पांच लोग घूम रहे थे पीपल के चारों ओर गोल गोल गोल..कुछ बुदबुदाते हुए मैं चलता रहा... वह, गांव की ड्योढ़ी पर लौटते बाढ़ का कोलाहल था क्वार की धूप में मछलियां देखकर, बच्चों का ताली बजाना महीनों भीगे हुए खेत का धूप सेंकना हर पहर के बाद गीली आंखों से दादू का लौटते बाढ़ को नापना जैसे, भीगे हुए खेत में घुटनों तक धंसते पांव को संभालकर चलना मैं चलता रहा...

तुम्हें गढ़ना

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photo coutesy_google पता नहीं क्यों ? मैं पूरी रात जागता रहा तुम्हारी यादों की बांह थामें टहलता रहा ख्वाब सजाता रहा और तारे गिनता रहा.. वो रात का जवान होना, खिली धूपनुमा चांदनी से फरिय़ाद करना याद आता रहा.. मोहब्बत सा दिल में कुछ उठता रहा पूरी रात मैं तस्वीरें बनाता रहा.

दस रुपए की चूड़ी

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पूरा मुहल्ला जग उठा है कराहें सुनकर आह..आह ये बहन, अधेड़ मां और मुहल्ले की नई दुल्हन की आह है जो आज फिर मार खाई है अपने हत्यारे पति से वो रोज गांजा, शराब पीकर गला दबाता और केरोसिन छिड़कता है उसका गुनाह सिर्फ इतना भर था उसने दस रुपए की चूड़ी खरीद ली थी बिना बताए अपने हाथों के नंगेपन को दूर करने के लिए मासूम सी बच्ची दहाड़े मार रही थी जब वो उसे लहुलुहान कर रहा था हर रोज मारता और गला दबाता है पर ना जाने क्यों वह प्रतिकार नहीं करती क्यों सहती है ये जुल्म क्यों नहीं फोड़ती है उसका सर क्या इतना भी हक नहीं है उसका एक पत्नी है वो एक मां है कई सालों से झेल रही है वो ये जुल्म क्या उसके हिस्से में सिर्फ मार है क्यों अपने हक को चोरी समझ लेती है वो क्यूं हर बार चुप रह जाती है वो

आइने से पूछ रहा हूं

उनकी पलकें उठी है,  मेरी सुबह के लिए चांद सा रोशन उनका चेहरा,  मेरी शाम के लिए बोलती आंखें कंपकपाते होंठो से,    होश गवांए सुन रही है  मेरी आंखे मोहब्बत के दो पल के लिए,    फरियाद की हमने फूटते लबों से  उनकी नजरों ने हां की है आइने से पूछ रहा हूं,    खुद को संवारने के तरीके उस वक्त की रूमानियत में निगल रहा हूं, अ पनी सांसे

तुम्हारी छुअन से

उस रात की महफिल के बाद. जगह की कमी से.. तुम सोई थी मेरे बगल में. जिस्म सिहर उ ठा.. तुम्हारी इक छुअन से...                          

वो कली

काले लिबास में लिपटी  वो कली. सबके दिल को चुराए  उसकी हंसी.. तीरे-ए-नजर कातिल बनी  वो कली. मासूमियत भरे चेहरे.. काली जुल्फें और शराबी होंठ. कितनी हसीन  वो कली..

हर लौ में

हर शाम तेरी उम्मीद में. दिया जलाते है.. शाम ढलते, मेरी नजरें. तुम्हें ढूंढ़ती हर महफिल में.. मेरी रातें कट जाती है. तेरे शहर की गलियों में.. लेकिन तुमसे मिलने की उम्मीद. दिये की हर लौ में नजर आती है.....

हवाएं गुदगुदाती है

जाम बनके हर प्याले में नजर आती हो. नशा बनके हमपे छा जाती.. हर महफिल में बस तू ही तू. ये मदमस्त हवाएं गुदगुदाती है.. जब याद बनके. तू हमें रूला जाती हो..

मेरे कारनामों में तुम खुबसूरत हो

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मेरे कारनामों में तुम खुबसूरत हो नए ज़माने की मिसाल हो सांचे में ढली मूरत हो, कोई करे कल्पना हुस्न क़ि तो वो बस तुम हो , किसी क़ि यादों में बसने वाली नाजनीन तुम हो एक युवा के सपनों में आने वाली हसीं तुम हो गुलशन में खिलने वाली हर कली, सिर्फ तुम हो फिजां में बिखरने वाली महक भी तुम हो ये क्या है, हर नाचीज़ तुम हो, तुम हो तो रंगत है, रंगत क़ि जरूरत हर मौसम को है हर हुस्न को है, ये हर नौजवान क़ि जरूरत है जीवन का चरम भी तुम हो, उम्र का शिखर भी तुम हो प्यार का मौसम भी तुम हो, तुम तो बस जवान हों, बुढ़ापे क़ि जलन हो बुढ़ापे से पहले, तुम मेरी जवानी हो. आमीन.

जीना, कमाल है

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चारों तरफ मुश्किल हालात है  मरकर भी जीना कमाल है, ना रहे दुनिया में तो क्या गम है  यारों  के दिल में जिन्दा रहना क्या कम है, हमने तो यही चाहा, जिन्दा भी रहे तो ,याद रहे यादों में मेरा नाम रहे, मरकर भी जिन्दा नाम रहे, कोई शिकवा खुदा से करे, दुआ हमे भी मिले चाहे जीने के लिए  जिन्दगी और उम्र ना रहे, किसी की दुआओं का असर तो होगा खुदा कभी तो मेहरबान होगा, एक पल अपने साथ होगा जीने के लिए किसी का आशीर्वाद तो होगा...  धन्यवाद .......

सच झूठ

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             कुछ सच झूठ  भी हो                     ऐसा मुमकिन भी हो               मजाक नहीं ,ये किसी  का सुरूर है                      दूर रहकर भी जो करीब है                जिन्दगी,संवरने लगती है जब                      मुश्किल होते ,हालत भी तब              जब सांसे बढ़ जाती है ,सब्र के आगे                    टूट जाते है सीमाओं के बंधन ,              बंधनों के टूट जाने से                      तब झूठ भी सच बनते है              सच के झूठ बन जाने से ............