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रख दो मेरे होठों पर अपने होंठ

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Image_Nandlal मुझे तलब लगी है तुम्हारे होठों की नमी चखने की पर इस पुरवाई में तुम अपने कमरे में कैद हो रात के तीसरे पहर मेरी आँखों में नींद के बजाय तुम्हारा चेहरा है मैं अपना दर्द कहूं तो कैसे मैंने तुम्हें इत्तला नहीं की है लेकिन तुम्हें आभास तो है एकतरफा बह रही पुरवाई से सूख रहा गला तुम्हें कैसे फोन करूँ तुम्हारी नींद में खलल कैसे डालूं तुम्हारी सांसें गिनना चाहूं अभी तुम्हारे हाथों की नमी में सोना चाहूं तुम्हें कैसे जगाऊँ नींद के एक्सटेंशन में मैं तन्हा जगा हूँ तुम्हारे फोन नम्बर का उच्चारण करते गले में पड़ रहा है सूखा जैसे मार्च में ही तप रहा जेठ का सूरज पड़पड़ा रहे होंठ, उधड़ रही चमड़ी सोचता हूँ दौड़ पड़ूं तुम्हारी सड़क की ओर और तुम भी चली आओ मॉर्निंग वॉक करते और रख दो मेरे होठों पर अपने होंठ ताकि तर जाये मेरा गला ठंडी पड़ जाए मेरी रूह शुकराने में मैं चूम लूं तुम्हारी पलकें और भर लूं तुम्हें अँकवार में जैसे एक दूसरे से चिपट जाती हैं बन्द आंख की पलकें

तुम्हारे उरोजों में मुंह दबाए सुबक रहा हूँ मैं

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हर सुबह  तुमसे आलिंगन होने का ज्वार मुझे विक्षिप्त कर देता है वासना के ज्वार में कांपता शरीर जंघाएँ दौड़ती हैं तुम पर वार करने को काठ हुआ शरीर चिपक जाता है बिस्तर से दीवार पर बैठी तुम हजार अंगड़ाईयाँ लेती हो फिर दीवार से उतरकर मेरे सामने खड़ी हो जाती हो निर्झर शाख की तरह ज्वार में विक्षिप्त मैं डूब जाता हूँ पसीने के दरिया में तुम्हारे उरोजों में मुंह दबाए सुबक रहा हूँ मैं तुम्हें पाने के बुखार में 

प्रिये, तुम अनन्त आकाश हो!

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Pic: Google मैं हर दिन हर रात हर पहर हर पल अपनी सैकड़ों फंतासियों में हर पल पिरो रहा हूँ तुम्हें मेरी सांस की हर माला  तुम्हारे बदन की महक में लिपटी है. मैंने इन सहस्त्रों सालों में करोड़ों फूलों को स्पर्श किया है लेकिन वो कोमलता भरी गर्माहट  मुझे नहीं मिली मृदुल पंखुड़ियों में मैं हजारों योनियों में जन्मा सहस्त्रों वर्षों भटका तुम्हें पाने को बगिया बगिया इस ब्रह्मांड में ढूंढ़ते हुए तुम्हारा एक स्पर्श मैंने करोड़ों आकाश गंगाओं को  नंगी आंखों से निहारा उनकी आंखों में झांक के देखा लेकिन नहीं मिली वो हया जो तुम्हारी आँखों में है जिनकी क्षणिक बौछार भिगो देती है मुझे तुम्हारा पका कत्थई जिस्म छाया है मेरी आँखों पर  अनन्त आकाश की तरह मैं अपनी सीमित कल्पनाओं में  तुम्हें उकेर रहा हूँ अपनी अंगुलियों से रंग भर रहा हूँ मन की कन्दराओं में बनी तुम्हारी छाया भित्तियों में पलकों पर, होंठो पर ग्रीवा से उतर कर नाभि तक नितम्बों से उठाकर कूल्हों पर फैला दिया है  धानी रंग तुम्हारी पीठ पर फैला दी है...