प्रिये, तुम अनन्त आकाश हो!
Pic: Google मैं हर दिन हर रात हर पहर हर पल अपनी सैकड़ों फंतासियों में हर पल पिरो रहा हूँ तुम्हें मेरी सांस की हर माला तुम्हारे बदन की महक में लिपटी है. मैंने इन सहस्त्रों सालों में करोड़ों फूलों को स्पर्श किया है लेकिन वो कोमलता भरी गर्माहट मुझे नहीं मिली मृदुल पंखुड़ियों में मैं हजारों योनियों में जन्मा सहस्त्रों वर्षों भटका तुम्हें पाने को बगिया बगिया इस ब्रह्मांड में ढूंढ़ते हुए तुम्हारा एक स्पर्श मैंने करोड़ों आकाश गंगाओं को नंगी आंखों से निहारा उनकी आंखों में झांक के देखा लेकिन नहीं मिली वो हया जो तुम्हारी आँखों में है जिनकी क्षणिक बौछार भिगो देती है मुझे तुम्हारा पका कत्थई जिस्म छाया है मेरी आँखों पर अनन्त आकाश की तरह मैं अपनी सीमित कल्पनाओं में तुम्हें उकेर रहा हूँ अपनी अंगुलियों से रंग भर रहा हूँ मन की कन्दराओं में बनी तुम्हारी छाया भित्तियों में पलकों पर, होंठो पर ग्रीवा से उतर कर नाभि तक नितम्बों से उठाकर कूल्हों पर फैला दिया है धानी रंग तुम्हारी पीठ पर फैला दी है...