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लव जेहाद’ के शोर में बोलती दीवारों वाला आईना लेकर खड़े हैं इरशाद कामिल

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image_Nandlal Sharma प्रेम जरूरी है किताबों के लिए किताबों से परे केवल बहकावा एक और रख रहा हूं देखिए.. लड़की का प्रेम फितूर लड़के का अय्याशी लड़की का प्रेम जहर लड़के का लहू लड़की का प्रेम मां का रक्तचाप, बाप का हृदय रोग भाई की शर्मिंदगी, मौसी का मसाला बुआ की झोंक, चाची का चटखारा पड़ोसी की लपलपाती जीभ अन्ततः शादी लड़के का प्रेम आज, चलो दूसरी ढूंढ़ें. वाणी प्रकाशन  से प्रकाशित  बोलती दीवारें .. जब दो किरदारों के जरिए फुसफुसाती है तो ये पाठक के कानों को ‘भारी’ लगती हैं. लेकिन जब वे बीच बीच में छोटे-छोटे अंतराल पर कविताएं पढ़ती है, तो अंतर्मन में छोटे-छोटे बुलबुले फूटते हैं और उससे हल्की हल्की आवाज उभरती है इरशाद..इरशाद. बोलती दीवारें..  इरशाद कामिल  लिखित नाटक है. जिसे पढ़ते हुए कई बार लगता है कि आप किसी मुंबइया फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हो. इरशाद खुद भी यह कहते हैं कि ‘यह नाटक फिल्मी प्रेम पर सैकड़ों गीत लिखने की थकावट का नतीजा है’. लिहाजा अब पाठक को यह तय करना है कि थकावट का नतीजा अच्छा है या बुरा. नाटक की समीक्षा...

बुक रिव्यू: मुर्गीखाने में रुदन को ढांपने खातिर गीत गाती कठपुतलियां

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Courtesy_Vani prakashan मुकुटधारी चूहा.. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित राकेश तिवारी का कहानी संग्रह है. सात कहानियों के इस संग्रह में कुछ बेहद रोचक कहानियां है. इन कहानियों के अनेक रूप है जो कड़े सवाल करती है. 'अंधेरी दुनिया के उजले कमरे में' रहने वाले 'मुकुटधारी चूहों' की हकीकत बयां करती ये कहानियां बताती है कि 'मुर्गीखाने' में नाचती 'कठपुतली' भी आखिर में थक जाती है. अपराधबोध जब हावी होता है, तो एक किशोर भी 'साइलेंट मोड' में चला जाता है. किताब में कहीं भी राकेश तिवारी के बारे में जानकारी नहीं दी गई है. लेकिन इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि ये उत्तर भारत से ताल्लुक रखती है और यहां बसे समाज की खिड़कियों पर चढ़ी काली फिल्में नोंच डालती है ताकि सड़ांध का पता सबको लग सके और फड़कती मूंछों का कोलतार उतर सके. तिवारी के इस संकलन की वैसे तो सभी कहानियों रोचक और पढ़ने लायक है लेकिन 'मुकुटधारी चूहा' और 'मुर्गीखाने की औरतें' जरूर पढ़ी जानी चाहिए. सभी कहानियों में तो नहीं लेकिन कुछ में आंचलिकता का पुट है, लेकिन दर्शन सबमें उपस्थित है. ...

जब शहर हमारा सोता है

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फनियर और खंजर जैसे दो झुंड में बंटे दस बीस लौंडे किसी भी सुहासधाम और करीमपुरा के हो सकते हैं. ये एक ही धर्म-जाति के या अलग-अलग हो सकते हैं. चूंकि झुंड में बंटे है, तो लड़ेंगे ही और यह लड़ाई खेल के मैदान में भी हो सकती है और चचा की दुकान पर भी, ताकि अमुक गली पर किस झुंड की बपौती होगी, गली हिंदू है या मुसलमान, उस टोले की है या इस मुहल्ले की. यह तय किया जा सके. पीयूष मिश्रा के शहर में भी फनियर और खंजर में बंटे लौंडे जर, जमीन और जोरू के लिए लड़ते रहते हैं. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पीयूष मिश्रा लिखित नाटक ‘जब शहर हमारा सोता है’ इस देश में होने वाले सांप्रदायिक दंगों के कारणों का सटीक विवरण है. मेरठ, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगों की कहानी भी पीयूष के ‘शहर’ से मिलती जुलती है.   पीयूष मिश्रा के तेवर और ताब से सजे इस नाटक को मंच पर ना देख पाने का मलाल तो मुझे है लेकिन इसे किताब की शक्ल हाथों में लेकर पढ़ना भी रोमांचक है. पीयूष के लिखे डॉयलॉग खालिश भदेस है और यही उनके पात्रों की ताकत भी.. जैसे, नाटक के एक दृश्य में त्यागी बोलता है.. ‘एक हाथ पड़ने की देर...

बुक रिव्यूः दो मुल्कों के आधी रात को आजाद होने की कहानी

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विश्वयुद्ध जीतने की कीमत क्या होती है या चुकानी पड़ती है?. सवाल यह भी हो सकता है आजादी की कीमत क्या होती है?. अगर आप पकड़ने की कोशिश करें तो विश्व विख्यात लेखक और पत्रकार डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिन्स की किताब ‘आजादी आधी रात को’ में इन दोनों सवालों के जवाब मिल जाएंगे. भारत की आजादी दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की खस्ताहाल स्थिति से उपजी थी. ‘ब्रिटेन मानवता के सबसे भयानक युद्ध में विश्व विजयी रहा था, लेकिन विजय क्या किसी को बिना कीमत चुकाए मिलती है. ब्रिटेन के उद्योग धंधे चौपट हो गए, उसका खजाना खाली हो गया था और उसकी मुद्रा पौंड अमेरिका और कनाडा के इंजेक्शनों के सहारे सांस ले रही थी. ऐसी ही स्थिति में ब्रिटेन ने माउंटबेटन को भारत से हाथ खींच लेने का सौंपा था.’ ब्रिटेन ने विश्वयुद्ध जीतने की कीमत इस तरह चुकाई. लुई माउंटबेटन ‘आजादी आधी रात को’ के नायक हैं और पूरी कहानी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमती है आखिरी के कुछ पाठों को छोड़कर जहां सांप्रदायिक बदले की भावना में रंगे बरछों को गांधी शांत रहने के लिए उपदेश देते हैं. किताब के प्राक्कथन में ही लापिएर और कॉलिन्स...

बुक रिव्यू : हाशिये पर खड़े समाज की क्यारी में उगे दलित करोड़पति

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क्या आप कल्पना सरोज के बारे में जानते हैं. या कभी अशोक खाड़े के बारे में सुना है. कोटा ट्यूटोरियल के बारे में तो जानते होंगे, लेकिन क्या आपको मालूम है कि इसके मालिक कौन है. सवालों का पहलू बदलते है. अंबानी, टाटा या बिड़ला के बारे में तो आपको बखूबी पता होगा. अब आप कहेंगे कि ये क्या सवाल है. दरअसल कल्पना सरोज, अशोक खाड़े और हर्ष भास्कर भी औरों की तरह ही बिजनेसमैन है. लेकिन हमसे ज्यादातर लोगों को इनके बारे में नहीं पता. और ये सच है. इनका संबंध भारतीय समाज के दलित वर्ग से है. जिन्हें अछूत समझा जाता रहा, भेदभाव हुआ. लेकिन इन लोगों ने अपने संघर्षों और चट्टानी जीवट के दम पर सफलता के नए सोपान लिखें और भारतीय उद्योग जगत में अपनी पहचान कायम की. पेंगुइन बुक्स से 2013 में प्रकाशित मिलिंद खांडेकर की किताब दलित करोड़पति-15 प्रेरणादायक कहानियां के नायक है कल्पना सरोज, अशोक खाड़े और हर्ष भास्कर जैसे लोग. और शायद हमारे समाज के असली हीरो भी. दलित करोड़पति-15 प्रेरणादायक कहानियां में 15 कहानियां है. जिनमें 15 दलित उद्योगपतियों के संघर्ष को शॉर्ट स्टोरीज की शक्ल में हमारे समाने रखा है मिलिंद खांड...

बुक रिव्यूः गुलज़ार का पहाड़े गिनना.. पन्द्रह पांच पचहत्तर

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Courtesy_google एक स्कूल था जो ढह गया था. मलबे पर छोटे छोटे बच्चे टाट पर बैठे पहाड़े गिन रहे थे. पन्द्रह एकम पंद्रह..पंद्रह दूनी तीस.... ‘पन्द्रह पांच पचहत्तर’. बाजुएं झटक झटक कर बच्चे पहाड़े गिन रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे कविता पढ़ रहे हो. वाणी प्रकाशन ने 2010 में ‘पन्द्रह पांच पचहत्तर’ नाम से गुलजार की कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया है. इस संग्रह में पन्द्रह पाठ है और हर पाठ में पांच कविताएं. गुलज़ार का फलक बहुत बड़ा है. जिसमें वो पूरी कायनात समेट लेते हैं. वो सौरमंडल का चक्कर काट आते हैं तो इराक से लेकर अफगानिस्तान तक की खाक छानते हैं. वो इराक की खानम की गवाही देते हैं तो गुजरात के उन मकानों का भी जो मलबे का ढेर बन गए. देखिए... कितने मासूमों के घर दंगों में जलकर मलबे का ढेर हुए जाते हैं गुजरात में ...और ये है, एक टूटे हुए रोज़न में इसे तिनके सजाने की पड़ी है! बाजू एक जुलाहे का, हिलता है अब तक कांप रहा है या शायद कुछ कात रहा है टांग है एक खिलाड़ी की...रन आउट हुआ है. घर तक दौड़ते दौड़ते राह में मारा गया. कहते है दीवारों के कान होते हैं लेकिन गुलजार इन दीवारों को जुब...

बुक रिव्यू: इस्लाम की बुनियाद पर लोकतंत्र खड़ा करना चाहते हैं इमरान

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दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इमरान खान की पहचान एक क्रिकेटर के तौर पर है. तेज गेंदबाजी का ककहरा जानने वाला छोटा बच्चा भी इमरान खान की बात करता है. लेकिन इमरान खान जब बचपन के दिनों में क्रिकेट खेलते थे, तो उनकी ख्वाहिश जन्नत में क्रिकेट खेलने की थी. वो परिवार के बड़ों से अक्सर ये सवाल पूछा करते थे कि ‘क्या मैं जन्नत में क्रिकेट खेल सकूंगा, क्या मैं वहां बंदूक चला सकूंगा.’ जन्नत में खेलने और बंदूक चलाने की बात उलझन पैदा करती है और इमरान की राजनीति भी. क्रिकेट के मैदान से निकलकर अस्पताल के गलियारे से राजनीति में उतरे इमरान खान के जीवन की ये पहली तस्वीर है.  इमरान की कल्पना में एक ऐसा लोकतंत्र है जिसकी बुनियाद इस्लाम पर टिकी है. या फिर एक ऐसा लोकतंत्र जिसकी फुनगियों पर इस्लाम का परचम लहरा रहा हो. लेकिन इमरान अपने इस इस्लामी लोकतंत्र को परिभाषित कर पाने में असफल नजर आते हैं. इस्लाम और लोकतंत्र दो अलग चीजें हैं. इस्लाम जहां पैगंबर की बात करता है. वहीं लोकतंत्र में लोग महत्वपूर्ण होते हैं. उनके चुनाव, अपनी बात रखने की आजादी, आलोचना और अपने तरीके से जीने की मर्जी. लोग अपने हिसाब ...