जलाओ दिए..
आठवीं में थे हम लोग, हम लोग यानि मैं और मेरी बहन, हिंदी की किताब में ये कविता अठारहवें पाठ में थीं। गोपाल दास नीरज मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं और उनकी यह कविता भी। हर शाम बिस्तर पर लेटे-लेटे हम लोग इसका पाठ किया करते थे। आज गूगल के सौजन्य से मैंने इसे ढूंढ निकाला, ताकि जब उन दिनों की याद आए, मैं इसे गा लूं, जीभर के... जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए । नई ज्योति के धर नए पंख झिलमि ल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले , लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी , निशा की गली में तिमिर राह भूले , खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगम ग, ऊषा जा न पा ए, निशा आ ना पा ए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी , मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी , कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी , चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही , भले ही दिवाली यहाँ रोज आ ए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं...