संदेश

poem लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं कविता से प्रेम करता हूं.

चित्र
courtesy_google मैं कविता से प्रेम करता हूं. ...और तुम्हारे पास कविता की भावनाएं हैं भाव, कविता के लिए आत्मा की तरह है.. इसी धागे के दो सिरे हैं हम तुम और तुम तो जानती हो.. भाव के बिना कविता अधूरी है.. मेरे जीवन में तुम्हारा होना ही कविता का होना है.. ताकि मैं प्रेम करता रहूं ..............कविता से 05.05.2013

सूरज, तुमसे मुंह दिखाई नहीं लेगा

चित्र
एक अमूर्त काया ही है मेरी प्रेयसी जिसे प्रेम करता हूं जब रोती है.  सारा जहां कहता है  बारिश हो रही है.. जब हंसती है  दुनिया वाले  दिन को खुशगवार कहते है और जब संवरती है तो  उस रात को  पूर्णिमा का नाम देते है. एक अमूर्त काया ही है मेरी प्रेयसी  उसके रोने, हंसने, और संवरने से  निढाल होते है..दुनिया वाले देखने के बजाय  महसूस करना रोने, हंसने और संवरने से  जो साकार होती है  वहीं है मेरी प्रेयसी  नजर आये, तो  मेरा जिक्र करना  सूरज, तुमसे मुंह दिखाई नहीं लेगा 03.05.2013

हम छुप रहे है..मिलने के बहाने.

चित्र
शाम डूब रही है.. चांद के आगोश में हम छुप रहे है मिलने के बहाने.. इस शाम का रंग ..बड़ा बेरंग है. घुंघरु खनके नहीं मेरी गली के चौराहे पर इश्क का दीया मेरे दिल में भी जलता अफसोस, उस लौ में संवरने वाला नहीं मिलता. कत्ल भरी निगाहों की मल्लिका सिर्फ तुम्हीं हो वाह, ये भरम सिर्फ तुम्हीं को है. मगर, हम भी वो लौ है जो, नहीं बुझते .......जहर के छीटों  से इक हाथ में नई फसल की सूखी डांठ दूजे में मौत का औजार खुद का पेट भरने को कतर रहा हूं जिस्म लहलहाते खेतों का.. तपन भरी धूप में छलकते पसीने की बूंद कुछ गले उतर रही है सूखे गले की सूखी थूंक चाय में भीगी हुई, रोटियों की तरह मुझे चाहिए गरमागरम, कुछ आपकी तरह.

इक कप के मिठास में

चित्र
सोचा कि इस गम को  डुबोके पी जाऊं शराब में  पीते-पीते शाम हो गई गम तैरता रहा.. मेरे ही ख्याल में  लाजवाब है..हर कला आपके अंदाज में  हर कोई घुलता है..इक कप के मिठास में  बड़ी बेसब्र है दुनिया कि कौन कातिल है यहां गर वो मिले अपने कफन में  तो..उसे भी रुला डाले दुनिया गर शाम गुजरती है मयखाने में  तो समां से पूछो  क्यूं दीवाने डूब रहे है दो घूंट शराब में  हर खिलती कली पर भौरां मेहरबान है.. कौन बताएं उन्हें कि  ये हरकत नादान है.. दिख रही है जिंदगी  उजड़ते पेड़ की तरह  हर तरफ दरारें है इसमें  टूटती शाख की तरह  तहखानों में बंद ना होगी  जिंदगी फिर इस कदर  हम ढूंढ़ते रहेंगे..चांदनी  पूर्णिमा की रात की तरह.

..कि तेरा शरमाती आंखों से मुस्कुरा देना..

चित्र
बरसों पहले लिखी हुई कुछ लाइनें.. वो लम्हें कैसे धुंधले हो जाएं मेरी यादों के शीशे में ..कि तेरा शरमाती  आंखों से मुस्कुरा देना.. ये चाहत उनकी भी थी  तैयार हम भी हुए कुछ पल की बरसात के बाद  ठंडे पड़ गए बदन के शोले  अंजान हम है.. बहारों के लौट आने तक  बिन पतझड़ के संभव नहीं  नई कोंपलों का निकलना.. हो गई.. तलब हमें गए-ए-यार की  प्याले भरे रह गए जैसे भरी मेरी आंख थी वो घूंट तड़प गई मेरी वफा से  बिखर गए हम .. उसी से लिपट के..

अटकना

चित्र
अंकुर जायसवाल आज इक कविता लिखने बैठा मैं, क्योंकि मैंने दो लाइनें सोचीं थी या कह लूं महसूस की थी कुछ दिनों से और सरलता से कहूँ तो जो कुछ भी महसूस किया था मैंने कुछ दिनों में वो उन दो लाइनों में था | तो आज सब कामों को निपटा कर लिखने बैठा मैं पर दिक्कत यह थी कि कविता तो दो लाइनों कि होगी नहीं, और शायरी करने मुझे आती नहीं फिर भी शुरू किया मैंने कविता को लिखना दो लाइनों का अंत लेकर चार लाइनों का छंद लिख दिया मैंने , अब इन चार लाइनों के साथ अंतिम दो लाइनों की दूरी को तय करने निकला और बीच में अटक सा गया मैं जैसे अभी इस कविता को आगे लिखने में अटक गया हूँ | यह ठीक वैसा ही अटकना है या उलझना है जैसे शुरू करते हैं हम सफर सपनों को पूरा करने का या सपनों को सच करने का पर उन दो पंक्तियों का सपना कभी असली पन्नों पर नहीं उतर पाता अटक जाते हैं हम चार पंक्तियों का काम कर के और फिर लिखने लगतें हैं एक और कविता   इस अटकने पर | और रह जाती हैं वह दो मूल पंक्तियाँ सपनों की तरह सपनों में......                 अंकुर जायसवाल

वो शब्द, जो जुबां से निकले और असर छोड़ गए..

चित्र
कभी-कभी हम हम्माम में नंगे खड़े होते है. लेकिन नहा नहीं पाते.

सूखे पत्तों पर बूंदों की तरह

चित्र
सावन की पहली बारिश मेरे बगीचे में उतरी सूखे पत्तों पर बूंदों की तरह प्यासी धरती के आंचल पर रंगीले छींटों की तरह.. पेड़ों और खेतों के उस पार घने मेघ सुस्ता रहे है जमकर बरसने के बाद जोर जोर...से कड़कती बिजली कह रही है घनघोर मेघों से बरसने को.. बगीचे में भीनी-भीनी सी सुगंध मुस्कुरा रही है.. टहनियों तले, हवाओं के संग बादलों के आने की खुशी में जो उसके होने की वजह है भीगी हुई धरती की तरह... बादलों के जाने के बाद हर गली से बूंदे दौड़ रही है बहते पानी की शक्ल में.. पूरे प्रवाह के साथ.. उड़ते बादलों को पकड़ने के लिए जो उन्हें छोड़ गए है.. सभ्य, असभ्य शहरों और  अनजाने गांवों में.. ब्याहीं हुई बेटी की तरह..  

मेरा अक्स तैरता है..

चित्र
इन दो तस्वीरों को देख जुबां पे कुछ शब्द यूं मचल उठे... पानी की मचलती तरंगों में मेरा अक्स तैरता है आ..कश्ती के सहारे महल के मुंडेर पे चले किसे चाह नहीं होती महल के साए में जल विहार की.. जलमहल, जयपुर राजस्थान भ्रमण के दौरान...23-06-2012 फोटो साभारः मनोज श्रेष्ठ

कहानियों का गट्ठर

चित्र
तुम जब भी आना मेरे पास कहानियों का गट्ठर साथ लेते आना जिसमें शरारतें हो, चालाकियां हो.. और बेईमानियां भी जिससे मेरी तन्हाइयों का साया तुम पर ना पड़े.. तुम्हारी कहानियों के किरदारों को मैं रखूंगा अपने खाली पड़े कमरों में जिनमें खामोशियां बसती है भयावह अकेलेपन के साथ चुप्पी ओढ़े हुए.. धुएं के गुबार सी उठती है खामोशियां और पसर जाती है पूरे मुहल्ले में जैसे नीले आसमां को ढक लेता है काला काला धुआं...

शब्दों का स्वेटर

चित्र
सैंकड़ों मीटर में फैले रेलवे स्टेशन पर photo courtesy_google धूल भरी हवाओं के बाद बारिश का सिलसिला प्लेटफॉर्म पर टिमटिमाती बत्तियों की रोशनी में बादलों ने चौपाल लगाई और, धीमी रोशनी के उजियारे में रात ने स्याह चोला पहना हल्की फुहारों की हवाओं संग बहने की जिद नंगे फर्श पर सोए लोगों के पास मैली और फटी चादरें थीं चुभती हुई उदास रात में शब्दों का स्वेटर बुनना गरमाहट भरा था.. हिसार, 19 मई, 2012

मैं चलता रहा..

चित्र
ये कुछ ऐसा था जैसे, खेत की पगडंडियों पर चलना गहरे, उथले और गड्ढ़ों से भरे मेड़ पर चलना पावों में ओस की शीतलता का अहसास होना लेकिन, नाजुक दूबों की शरारत भरी चुभन ना थी हल्की फुहारों के बाद सपाट कठोर पत्थरों की तरावट में मैं चलता रहा.. दूर जुते हुए खेतों में कुछ बच्चे मिट्टी के ढेलों पर बैठे थे उनके हाथों में बांस की छिटकुन थी वे निशाना साध रहे थे चट्टान नुमा बड़े ढेलों पर कुछ भैंसे बबूल की छाल खा रही थी मैं चलता रहा... वह  पीपल का पेड़ जो बचपन में बहुत डराता था मुर्दों को पानी पिलाता था अपने गले में बंधे घंट से जिससे सूत के सहारे पानी की बूंदे टपकती टप टप टप... सर मुड़ाए पांच लोग घूम रहे थे पीपल के चारों ओर गोल गोल गोल..कुछ बुदबुदाते हुए मैं चलता रहा... वह, गांव की ड्योढ़ी पर लौटते बाढ़ का कोलाहल था क्वार की धूप में मछलियां देखकर, बच्चों का ताली बजाना महीनों भीगे हुए खेत का धूप सेंकना हर पहर के बाद गीली आंखों से दादू का लौटते बाढ़ को नापना जैसे, भीगे हुए खेत में घुटनों तक धंसते पांव को संभालकर चलना मैं चलता रहा...

तुम्हें गढ़ना

चित्र
photo coutesy_google पता नहीं क्यों ? मैं पूरी रात जागता रहा तुम्हारी यादों की बांह थामें टहलता रहा ख्वाब सजाता रहा और तारे गिनता रहा.. वो रात का जवान होना, खिली धूपनुमा चांदनी से फरिय़ाद करना याद आता रहा.. मोहब्बत सा दिल में कुछ उठता रहा पूरी रात मैं तस्वीरें बनाता रहा.

दस रुपए की चूड़ी

चित्र
पूरा मुहल्ला जग उठा है कराहें सुनकर आह..आह ये बहन, अधेड़ मां और मुहल्ले की नई दुल्हन की आह है जो आज फिर मार खाई है अपने हत्यारे पति से वो रोज गांजा, शराब पीकर गला दबाता और केरोसिन छिड़कता है उसका गुनाह सिर्फ इतना भर था उसने दस रुपए की चूड़ी खरीद ली थी बिना बताए अपने हाथों के नंगेपन को दूर करने के लिए मासूम सी बच्ची दहाड़े मार रही थी जब वो उसे लहुलुहान कर रहा था हर रोज मारता और गला दबाता है पर ना जाने क्यों वह प्रतिकार नहीं करती क्यों सहती है ये जुल्म क्यों नहीं फोड़ती है उसका सर क्या इतना भी हक नहीं है उसका एक पत्नी है वो एक मां है कई सालों से झेल रही है वो ये जुल्म क्या उसके हिस्से में सिर्फ मार है क्यों अपने हक को चोरी समझ लेती है वो क्यूं हर बार चुप रह जाती है वो

आइने से पूछ रहा हूं

उनकी पलकें उठी है,  मेरी सुबह के लिए चांद सा रोशन उनका चेहरा,  मेरी शाम के लिए बोलती आंखें कंपकपाते होंठो से,    होश गवांए सुन रही है  मेरी आंखे मोहब्बत के दो पल के लिए,    फरियाद की हमने फूटते लबों से  उनकी नजरों ने हां की है आइने से पूछ रहा हूं,    खुद को संवारने के तरीके उस वक्त की रूमानियत में निगल रहा हूं, अ पनी सांसे

तुम्हारी छुअन से

उस रात की महफिल के बाद. जगह की कमी से.. तुम सोई थी मेरे बगल में. जिस्म सिहर उ ठा.. तुम्हारी इक छुअन से...                          

वो कली

काले लिबास में लिपटी  वो कली. सबके दिल को चुराए  उसकी हंसी.. तीरे-ए-नजर कातिल बनी  वो कली. मासूमियत भरे चेहरे.. काली जुल्फें और शराबी होंठ. कितनी हसीन  वो कली..

हर लौ में

हर शाम तेरी उम्मीद में. दिया जलाते है.. शाम ढलते, मेरी नजरें. तुम्हें ढूंढ़ती हर महफिल में.. मेरी रातें कट जाती है. तेरे शहर की गलियों में.. लेकिन तुमसे मिलने की उम्मीद. दिये की हर लौ में नजर आती है.....

हवाएं गुदगुदाती है

जाम बनके हर प्याले में नजर आती हो. नशा बनके हमपे छा जाती.. हर महफिल में बस तू ही तू. ये मदमस्त हवाएं गुदगुदाती है.. जब याद बनके. तू हमें रूला जाती हो..

मेरे कारनामों में तुम खुबसूरत हो

चित्र
मेरे कारनामों में तुम खुबसूरत हो नए ज़माने की मिसाल हो सांचे में ढली मूरत हो, कोई करे कल्पना हुस्न क़ि तो वो बस तुम हो , किसी क़ि यादों में बसने वाली नाजनीन तुम हो एक युवा के सपनों में आने वाली हसीं तुम हो गुलशन में खिलने वाली हर कली, सिर्फ तुम हो फिजां में बिखरने वाली महक भी तुम हो ये क्या है, हर नाचीज़ तुम हो, तुम हो तो रंगत है, रंगत क़ि जरूरत हर मौसम को है हर हुस्न को है, ये हर नौजवान क़ि जरूरत है जीवन का चरम भी तुम हो, उम्र का शिखर भी तुम हो प्यार का मौसम भी तुम हो, तुम तो बस जवान हों, बुढ़ापे क़ि जलन हो बुढ़ापे से पहले, तुम मेरी जवानी हो. आमीन.