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गोरी चमड़ी, ईसायत का लबादा और सत्य शोधक समाज

धर्म भी कमाल क़ि चीज़ है। हर कोई इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। चाहे वो पिछड़ा वर्ग क़ि राजनीति करने को हों या ब्राह्मणवाद और मनुवाद के खिलाफ लोगों को खड़ा करना हों। इसके लिए लोग झूठी कहानियाँ गढ़ते है, तो लम्बे चौड़े वादे भी करते हैं। बस यही कहानी है सत्य शोधक समाज की,जहाँ पिछड़ों और दलितों के हक का मुखौटा लगाकर लोगों को ईसाई धर्म के प्रति प्रेरित किया जाता है। जहाँ हिंदुत्व को जी भरकर गालियाँ दी जाती है और हवाला इस बात का दिया जाता है क़ि  जहाँ -जहाँ ईसायत हैं वहां समानता , समभाव और एकरूपता विद्ममान है। पिछड़ों क़ि राजनीति के पीछे यहाँ, और भी बहुत कुछ है। यहाँ शराब औऱ कबाब का दौर है, तो हिन्दीं फिल्मों के गाने भी हैं। यहाँ प्रार्थनाओ के नाम पर हिंदी फिल्मों के गाने बड़े शौक से गाए जाते क्यों क़ि वो गाने किसी पिछड़े व्यक्ति ने लिखें हैं। यह माना जा सकता हैं क़ि हिंन्दू समाज में कुछ खामियां है। यहाँ वर्ण व्यवस्था के चलते एक बड़ा वर्ग शोषण का शिकार हुआ हैं। जिसका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। क्यों कि  प्रशासनिक या सार्वजनिक पदों पर कुछ वर्ण के लोगों का बोलबाला है और  इसका प

"ek mulakat" - "sunil kapoor se"

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सेलेक्ट प्रकाशन से आए सुनील कपूर से हमने बात क़ि जो एक लम्बे समय से बुक प्रदर्शनियों  में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे है , आइये जानते है कैसा रहा उनका अनुभव.. प्रश्न-भारतीय जनसंचार संस्थान के इस पहले बुक फेयर के प्रति लोगों का रुझान कैसा रहा है ? उतर-अच्छा है, ज्यादातर लोग छात्र ही है,टेक्स्ट बुक और कोर्स क़ि किताबों के प्रति लोगों का रुझान आमतौर पर देखा जाता है, लेकिन यहाँ हर तरह क़ि किताबों क़ि मांग है और लोगों क़ि दिलचस्पी भी दिख रही है, प्रश्न- एक मीडिया संस्थान क़ि बुक प्रदर्शनी में पहली बार आकर कैसा लगा ?   उतर- देखिये इसके बारे में मै कुछ नहीं कह सकता,क्यों क़ि ऐसी जगह हम पहली बार आये है, लेकिन अच्छा है, प्रश्न - ई- बुक के समय में बुक फेयर का आयोजन और किताबों क़ि बिक्री के उपर क्या प्रभाव पड़ा है ? ऊतर- जी , बिलकुल इन्टरनेट ने लोगों को खासा प्रभावित किया है, जिनमे युवाओं क़ि संख्या काफी है, लेकिन आज भी बुक प्रदर्शनियों का आयोजन लगातार हों रहा है, किताबों के प्रति लोगों क़ि दिलचस्पी थोड़ी कम देखने को मिल रही है, लेकिन यही युवा जब तीस क़ि उम्र के हों जायेगें तब इन्हें किताब

"ek kamyab koshish"

           उनके कद समान थे। चेहरे के रंगों में थोड़ी विविधता थी। लेकिन उनके कदमों क़ि मंजिल एक थी। अपने ही कालेज के कैम्पस  में लगें बुक प्रदर्शनी में जाने का उनका उत्साह देखते ही बनता था। पैरों क़ि चपलता और उनके अंदाज को देखकर ऐसा लग रहा था। मानों वे सभी बुक फेयर में सजी सारी किताबों को खरीद लायेंगे।            भारतीय जनसंचार संस्थान के मंच पर पहली बार किसी बुक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। संस्थान के मैनेजमेंट विभाग के इस कदम क़ि सर्वत्र चर्चा हों रही थी। लोगों का कहना था क़ि इस तरह के आयोजन  से छात्रों को अच्छी किताबों से रूबरू होने का मौका मिलेगा। ढेर सारी किताबें उन्हें एक बुक शॉप पर देखने को नहीं मिलती हैं। साथ ही उन्हें नयी पुरानी किताबों से  भी रूबरू होने का मौका मिलेगा। इस तरह के आयोजनों से किताबों के प्रति युवा छात्रों का रुझान भी बढे़गा। जो आज तकनीक के जाल में उलझता रहा है। वैसे तो बुक प्रदर्शनी में मैनेजमेंट ने लगभग बीस प्रकाशन समूहों को न्योता दिया था । लेकिन उनमें से सिर्फ ग्यारह - बारह प्रकाशन समूह ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके।            एक छोटी सी पहल एक नयी शुरुआत

How modern indian youth think about poor youth

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५ जनवरी २०११, भारतीय जनसंचार संस्थान के कैम्पस रेडियो पर एक परिचर्चा का आयोजन विज्ञापन एवं जनसंपर्क विभाग के छात्रों ने किया था।  जिसका विषय आरक्षण था।  इस परिचर्चा में उन छात्रों ने भी भाग लिया था। जो भारत के गावों से आते है। जिन्हें बखूबी पता है क़ि,  देश के गावों और कस्बों क़ि शिक्षा व्यवस्था कैसी है। गावों के विद्यार्थियों को किस तरह क़ि सुविधाएँ उनके माँ बाप दे पाते है। उनमें से बहुत से बच्चे ऐसे भी थे।  जो आरक्षण के दायरे में आते है।                                   उपर्युक्त परिचर्चा में विज्ञापन और जनसंपर्क विभाग के कुछ छात्रों ने कहा क़ि जो बच्चे आरक्षण के अंतर्गत आते है। वे प्रतिभा और क्षमता के मामले में हमसे कमजोर होते है। हम उन्हें वो सम्मान नहीं देते। जो हम अपने उन साथियों को देते है। जो हमारी तरह बिना आरक्षण के यहाँ  तक पहुंचे है। ये विचार उन युवाओं के नहीं थे। जिनके माँ बाप उनके लिए दो जून क़ि रोटी का जुगाड़ बड़ी मुश्किल से कर पाते है।  बल्कि ऐसा कहने वाले शीशे के घरों में सिगरेट का कश लेकर अपनी लाइफ बिंदास तरीके से जीते है ।  इनके डैड और माम  लाखों रूपये हर महीने कमा

इस राष्ट्रवाद के आगे आप का सिदांन्तवाद कहीं नहीं ठहरता।

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  आईआईएमसी में इस साल जब से सामयिक चर्चाओं क़ि शुरुआत हुई है। एक चीज़ बार बार सुनने में आ रही है क़ि राष्ट्र का कोई औचित्य नहीं होता। मानता हूँ उनकी बात को   जो राजनीतिक किताबों में भी लिखी है। ऐसा नहीं है क़ि मेरे भाई - बंधू उसे दुसरे अर्थों में स्वीकारते है। लेकिन वो इसे पूरी तरह खारिज कर देते है।               एक नागरिक क़ि पहचान उसके निवास स्थान से, उसके परिवेश से और उसके देश क़ि सीमाओं से होती है। वो किस इस देश का नागरिक है। आप उनसे पूछिये जिनके साथ  किसी देश का नाम जुड़ा नहीं है।  उन शरणार्थियों से पूछिये जिन्हें  कोई देश अपना नागरिक स्वीकार करने को तैयार नहीं है। कुछ लोग इसी  देश में रहते है। यही का खाते है, फिर भारत क़ि सीमाओं को नहीं मानतें। मै जानना चाहता हूँ क़ि उनके लिए भारत का मतलब क्या है। क्या वो यही चाहते है क़ि हिंदुस्तान क़ि कोई सीमा  ना हों। उसे एक राष्ट्र क़ि मान्यता ना हों।             बात अरुंधती रॉय से शुरू हुई थी। उन्हें गिरफ्तार किये जाने के उस आदेश से जिसमें कोर्ट ने उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज कर गिरफ्तार करने को कहा था।  कुछ लोगों ने उनका पक्ष ल

गांधी को गोली लगते जिन्होंने देखा था, उन्‍हें सुनिए

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वह भी एक दिन था।” वे क्षण भर रुके। फिर थोड़ी दूर चलकर बताया,” गांधीजी को जब गोली लगी तो मैं इस स्थान (10 से 12 फुट की दूरी) पर था।” यह बात केडी मदान कह रहे थे। सहसा इसपर आपको यकीन न हो। पर उन्हें सुनने के बाद वह पूरा दृश्य सभी के सामने नाचने लगता है। ऐसा ही उस समय हुआ, जब गांधी स्मृति केंद्र के मैदान पर बुजुर्ग केडीमदान आंखों देखा हाल सुना रहे थे। मदान उन दो लोगों में हैं, जिन्होंने गांधी को करीब से गोली लगते देखा था और संयोग से हमारी जानकारी में हैं। उन दिनों मदान वहां ऑल इंडिया रेडियो की तरफ से गांधी के भाषण को रिकार्ड करने रोजाना जाते थे। उन्होंने कहा कि 30 जनवरी की वह एक सामान्य शाम थी। गांधीजी प्रार्थना स्थल पर अपनी जगह पहुंचने ही वाले थे कि एक तेज आवाज आयी। मुझे लगा कि कोई पटाखा छूटा है। कुछ और सोच पाता कि दूसरी आवाज सुनाई दी। थोड़ा आगे पहुंचा, तबतक तीसरी बार आवाज आयी। वहां मैंने पाया कि जमीन पर गिरे गांधीजी को एक व्यक्ति उठा रहा है, जबकि गोली चलाने वाले को वहां मौजूद कुछेक लोग पकड़े हुए हैं। हालांकि, वह व्यक्ति पूरी तरह शांत और स्थिर था।” दरअसल घटना के 62 साल बाद मदान उस काल

जनता के पैसे के दुरूपयोग पर चुप्पी, क्यों..?

हालियॉ रिलीज फिल्म 'नाँकआउट' का एक चरित्र कहता है। ' क्या तुम्हें पता है कि हजार रुपए का नोट ' गुलाबी क्यों होता हैं'। क्यों कि वह देश की जनता के खून से रंगा होता है। लेकिन शायद कांग्रेसियों को इस बात का इल्म नहीं हैं कि उनके पालतू पैसाखोरों ने जिस पैसों से अपनी सेहत और मालदार बनाई है, वो पैसा भी खून पसीने से कमाया हुआ था। देश के नामी गिरामी खानदान के राजकुमार और भविष्य की प्रधानमंत्री कुर्सी पर नजर गङाए 'युवराज' को ये दोहराना आता है कि 'केन्द्र का एक रुपया आम आदमी के पास पन्द्रह पैसे के रूप में पहुँचता हैं। लेकिन ये नजर नहीं आता कि उन्हीं के नाँक के नीचे उनके पालतुओं नें करोंङों पचा डाले। पता भी कैसे चले जब आँखों पर गांधारी की तरह पट्टी बंधी हो और कान बहरे बन गए हो। यही गांधी परिवार है,जिसका पसंदीदा डॉयलॉग है 'आम आदमी का हाथ, कांग्रेस के साथ' लेकिन मैं इसको इस तरह देख रहा हूँ कि 'आम आदमी का पॉकेट,कांग्रेस के हाथ'। विकास और पारदर्शिता के बल पर युवाओं को भ्रष्ट राजनीति की काल कोठरी में खींच लाने का दंभ भरने वाले युवराज को अपने पैसाखोर