"ek kamyab koshish"
उनके कद समान थे। चेहरे के रंगों में थोड़ी विविधता थी। लेकिन उनके कदमों क़ि मंजिल एक थी। अपने ही कालेज के कैम्पस में लगें बुक प्रदर्शनी में जाने का उनका उत्साह देखते ही बनता था। पैरों क़ि चपलता और उनके अंदाज को देखकर ऐसा लग रहा था। मानों वे सभी बुक फेयर में सजी सारी किताबों को खरीद लायेंगे।
भारतीय जनसंचार संस्थान के मंच पर पहली बार किसी बुक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। संस्थान के मैनेजमेंट विभाग के इस कदम क़ि सर्वत्र चर्चा हों रही थी। लोगों का कहना था क़ि इस तरह के आयोजन से छात्रों को अच्छी किताबों से रूबरू होने का मौका मिलेगा। ढेर सारी किताबें उन्हें एक बुक शॉप पर देखने को नहीं मिलती हैं। साथ ही उन्हें नयी पुरानी किताबों से भी रूबरू होने का मौका मिलेगा। इस तरह के आयोजनों से किताबों के प्रति युवा छात्रों का रुझान भी बढे़गा। जो आज तकनीक के जाल में उलझता रहा है। वैसे तो बुक प्रदर्शनी में मैनेजमेंट ने लगभग बीस प्रकाशन समूहों को न्योता दिया था । लेकिन उनमें से सिर्फ ग्यारह - बारह प्रकाशन समूह ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके।
एक छोटी सी पहल एक नयी शुरुआत के लिए काफी होती है और इसका नजारा सुबह से ही दिखने लगा था। फैकल्टी सदस्यों ,छात्रों और स्टाफ कर्मचारियों ने माहौल को जमा दिया था। अभी घंटे भर भी नहीं बीते थें बुक प्रदर्शनी को खुले हुए क़ि छात्रों के समूह उमड़ने लगें। जिसे देखकर प्रकाशन समूहों के प्रतिनिधियों में उत्साह का माहौल दिखा।
दोपहर के वक्त बुक प्रदर्शनी में किताबों के पन्ने पलट रहे अल्फाज़ का कहना था क़ि बुक प्रदर्शनी एक अच्छी पहल है और मै संस्थान के इस कदम क़ि सराहना करता हूँ। आज जब ई-बुक का जमाना आ गया हैं और लोग मोबाइल पर किताबें पढ़ रहे हो। ऐसे समय में इस तरह के आयोजनों क़ि महत्ता काफी बढ़ जाती है। जीतेन्द्र जो क़ि संस्थान में ही हिंदी जर्नलिज्म के छात्र है। उनका कहना था क़ि व्यक्तिगत रूप से उन्हें थोड़ी निराशा हुई। क्यों क़ि प्रदर्शनी में अंग्रेजी क़ि किताबों का बोलबाला था और हिंदी क़ि किताबें किसी कोने में दुबकी पड़ीं थी। साथ ही किताबों के आसमान छू रहें मूल्यों को सुनकर सारा जोश ठंडा पड़ गया। यही वजह है क़ि मैं कोई किताब नहीं खरीद पाया।
बुक प्रदर्शनी में ओंकार प्रकाशन के कुलविंदर सिंह इन्टरनेट के प्रभाव से थोड़े चिंतित नजर आये । उन्होंने कहा क़ि आज किताबों को इन्टरनेट से काफी कड़ी टक्कर मिल रही है। आज लोगों को ऐसे आयोजनों में आने क़ि जहमत नहीं उठानी पड़ रही। क्यों क़ि आज सब कुछ मात्र एक क्लिक क़ि दुरी पर है। आज के युवा तकनीकी रूप से काफी जागरूक है और उनका ज्यादातर समय आनलाइन ही कटता है। जहाँ सब कुछ उपलब्ध है। जबकि एक युवा किताबों का सबसे बड़ा खरीददार होता हैं। इसलिए खरीददारी के मामले में उनमें थोड़ी उदासीनता दिख रही है।
भारतीय जनसंचार संस्थान के इस पहली बुक प्रदर्शनी में किताबों कि खरीददारी कम रही। लेकिन लाइब्रेरी के लिए किताबों क़ि मांग अच्छी रही। जिससे प्रकाशन प्रतिनिधियों के चेहरों पर संतोष क़ि भावना दिखी।
दोपहर के दो बजे के वक्त बुक प्रदर्शनी में काफी भीड़ देखने को मिली। हर हाथों में किताबें दिख रही थी तो निगाहें कुछ खोजती नजर आयी। बुक प्रदर्शनी में दूर देश से आए छात्रों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। छात्रों और विक्रेताओं में छुट के प्रतिशत को लेकर कुछ उलझनें भी देखने को मिली जो कुछ कम तो कुछ ज्यादा दे रहे थे।
शाम को बुक प्रदर्शनी से लौटने से पहले हर कोई यही चाहता था क़ि वो हर स्टाल पर लगी सारी किताबों को एक बार देख ले। ताकि कुछ अच्छा मिल जाये। लौटते वक्त सभी क़ि जुबान पर संस्थान के लिए तारीफ के शब्द नाच रहे थे। इस बुक प्रदर्शनी क़ि कामयाबी ने साबित कर दिया क़ि भले ही तकनीक का प्रभाव किताबों क़ि दुनिया पर भी हो। लेकिन किताबों के प्रति लोगों का लगाव कम नहीं हुआ हैं।
भारतीय जनसंचार संस्थान के मंच पर पहली बार किसी बुक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। संस्थान के मैनेजमेंट विभाग के इस कदम क़ि सर्वत्र चर्चा हों रही थी। लोगों का कहना था क़ि इस तरह के आयोजन से छात्रों को अच्छी किताबों से रूबरू होने का मौका मिलेगा। ढेर सारी किताबें उन्हें एक बुक शॉप पर देखने को नहीं मिलती हैं। साथ ही उन्हें नयी पुरानी किताबों से भी रूबरू होने का मौका मिलेगा। इस तरह के आयोजनों से किताबों के प्रति युवा छात्रों का रुझान भी बढे़गा। जो आज तकनीक के जाल में उलझता रहा है। वैसे तो बुक प्रदर्शनी में मैनेजमेंट ने लगभग बीस प्रकाशन समूहों को न्योता दिया था । लेकिन उनमें से सिर्फ ग्यारह - बारह प्रकाशन समूह ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके।
एक छोटी सी पहल एक नयी शुरुआत के लिए काफी होती है और इसका नजारा सुबह से ही दिखने लगा था। फैकल्टी सदस्यों ,छात्रों और स्टाफ कर्मचारियों ने माहौल को जमा दिया था। अभी घंटे भर भी नहीं बीते थें बुक प्रदर्शनी को खुले हुए क़ि छात्रों के समूह उमड़ने लगें। जिसे देखकर प्रकाशन समूहों के प्रतिनिधियों में उत्साह का माहौल दिखा।
दोपहर के वक्त बुक प्रदर्शनी में किताबों के पन्ने पलट रहे अल्फाज़ का कहना था क़ि बुक प्रदर्शनी एक अच्छी पहल है और मै संस्थान के इस कदम क़ि सराहना करता हूँ। आज जब ई-बुक का जमाना आ गया हैं और लोग मोबाइल पर किताबें पढ़ रहे हो। ऐसे समय में इस तरह के आयोजनों क़ि महत्ता काफी बढ़ जाती है। जीतेन्द्र जो क़ि संस्थान में ही हिंदी जर्नलिज्म के छात्र है। उनका कहना था क़ि व्यक्तिगत रूप से उन्हें थोड़ी निराशा हुई। क्यों क़ि प्रदर्शनी में अंग्रेजी क़ि किताबों का बोलबाला था और हिंदी क़ि किताबें किसी कोने में दुबकी पड़ीं थी। साथ ही किताबों के आसमान छू रहें मूल्यों को सुनकर सारा जोश ठंडा पड़ गया। यही वजह है क़ि मैं कोई किताब नहीं खरीद पाया।
बुक प्रदर्शनी में ओंकार प्रकाशन के कुलविंदर सिंह इन्टरनेट के प्रभाव से थोड़े चिंतित नजर आये । उन्होंने कहा क़ि आज किताबों को इन्टरनेट से काफी कड़ी टक्कर मिल रही है। आज लोगों को ऐसे आयोजनों में आने क़ि जहमत नहीं उठानी पड़ रही। क्यों क़ि आज सब कुछ मात्र एक क्लिक क़ि दुरी पर है। आज के युवा तकनीकी रूप से काफी जागरूक है और उनका ज्यादातर समय आनलाइन ही कटता है। जहाँ सब कुछ उपलब्ध है। जबकि एक युवा किताबों का सबसे बड़ा खरीददार होता हैं। इसलिए खरीददारी के मामले में उनमें थोड़ी उदासीनता दिख रही है।
भारतीय जनसंचार संस्थान के इस पहली बुक प्रदर्शनी में किताबों कि खरीददारी कम रही। लेकिन लाइब्रेरी के लिए किताबों क़ि मांग अच्छी रही। जिससे प्रकाशन प्रतिनिधियों के चेहरों पर संतोष क़ि भावना दिखी।
दोपहर के दो बजे के वक्त बुक प्रदर्शनी में काफी भीड़ देखने को मिली। हर हाथों में किताबें दिख रही थी तो निगाहें कुछ खोजती नजर आयी। बुक प्रदर्शनी में दूर देश से आए छात्रों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। छात्रों और विक्रेताओं में छुट के प्रतिशत को लेकर कुछ उलझनें भी देखने को मिली जो कुछ कम तो कुछ ज्यादा दे रहे थे।
शाम को बुक प्रदर्शनी से लौटने से पहले हर कोई यही चाहता था क़ि वो हर स्टाल पर लगी सारी किताबों को एक बार देख ले। ताकि कुछ अच्छा मिल जाये। लौटते वक्त सभी क़ि जुबान पर संस्थान के लिए तारीफ के शब्द नाच रहे थे। इस बुक प्रदर्शनी क़ि कामयाबी ने साबित कर दिया क़ि भले ही तकनीक का प्रभाव किताबों क़ि दुनिया पर भी हो। लेकिन किताबों के प्रति लोगों का लगाव कम नहीं हुआ हैं।
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