संदेश

मेरे राम..

चित्र
मेरे राम मस्जिद में भी रहते है/थे/सकते है..और तुम लोगों ने उसी मस्जिद को तोड़ दिया..और तबसे मैं हिंदू ना रहा.. और राष्ट्र तो एक कल्पना है मेरे लिए..राष्ट्र जैसी चीजें सत्ता के लिए जरुरी है. और सत्ता में मेरा कोई स्टेक नहीं है..और सत्ता के मद में ही गर्भ में पल रहे शिशु को तलवारों की नोक पर टांग दिया जाता है..मेरी स्थिति तो 70-80 प्रतिशत के समान है..20 रुपए में रोजाना दो जून की रोटी..मेरे राम के पास मंदिर/मस्जिद की च्वॉइस रखने की जगह ही नहीं है. 13.07.2013

उसे निहारना

चित्र
मुझे जब भी मौका मिलता है मैं उसे निहारता रहता हूं. दरअसल इसके पीछे एक सघन और रहस्यमयी आकर्षण है. जबकि वो मुझे नापसंद करती है. यह आकर्षण उसकी आहट मिलते ही मुझ पर हावी हो जाता है..जब वो मेरे सामने होती है..मैं निहारता रहता हूं उसे. अपने सुकून के लिए.. क्योंकि जब आप एक चुम्बकीय शक्ति से बंधे होते है..सुकून आपके नियंत्रण में नहीं होता. 04.07.2013

SHORT STORY: मेरी दुनिया की औरतें..

चित्र
गांव में बाढ़ आई थी..एक ही नाव पर..गोइठा, बकरी के बच्चे..दही बेचने वालियों के दौरे..हिंदू-मुस्लिम, औरत-मर्द सब एक साथ..सुबह का वक्त था..हवा तेज थी..डेंगी नाव पर उछल रहा बकरी का बच्चा बाढ़ के गहरे पानी में गिर गया..हाय राम, हाय अल्ला..सब एक दूसरे का मुंह देख रहे थे..अचानक वो अपने कपड़े खोलकर फेंकने लगी..बोली, मैं उसे मरने नहीं दूंगी और बिना कुछ सोचे कूद गई..सब अवाक थे..मैंने कहा, ऐसी हैं मेरी दुनिया की औरतें.. 02-07-2013 

मैंने लिखा था डायरी में

चित्र
'इस दुनिया में जितने भी लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया, वे कभी समझ नहीं पाये कि मैं उन्हें प्यार करता था।  या  यूं कहूं कि मैंने जिनसे भी प्रेम किया उनसे कभी मजाक नहीं किया। अटूट प्रेम की चाहत में, मैं मजाक से भी डरता था' 27.06.2013

मैं अपना आरम्भ कितना पीछे छोड़ आया हूं।

चित्र
Courtesy_Google मृत्यु तब तक कोई समस्या नहीं है.. जब तक आपने जीना शुरू नहीं किया है। लेकिन मैं तो अभी ठिठका हूं..ठीक, चलने से पहले..। मैं अकेले जीना नहीं चाहता और मरना भी..इसलिए इंतजार कर रहा हूं उसके आने का..ताकि हम अंगुलियों के पेंच लड़ा सकें.. यूं भी ठिठकना आप की स्मृतियों को ताजा कर देता है। दो पतंगें हवा में पेंचे लड़ा रहीं थी, खिलखिला रही थी और एक दूसरे की नोंकझोंक में मगन थीं..नीचे ढेर सारे लोग चिल्लाते हुए अपने हाथ हवा में लहरा रहे थे.. कौन जानता था उनकी ये खुशी स्वार्थवश थी। हवा का तेज झोंका एक पतंग को खींचता हुई दूसरी से अलग कर गया। जिसे छतों पर खड़े लोगों ने लूट लिया.. स्मृतियां आपके पांवों में उलझ जाती है..लेकिन नए बीजों को पनपने के लिए भूमि की गर्माहट बहुत जरुरी होती है। जीने की नई शुरूआत से पहले सोचता हूं..मैं अपना आरम्भ कितना पीछे छोड़ आया हूं। (कहीं कुछ टूटा हुआ सा है..शीशे सा।) 24.06.2013

चाहता हूं गंगा, यमुना, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र सहित तमाम नदियां अपनी जमीनों पर कब्जा कर लें

चित्र
Courtesy_Social Media 2009 में दूसरी बार दिल्ली आने पर यमुना से अपने साक्षात्कार के समय मैं मोटरसाइकिल की सीट पर बैठा था। पिछली सीट पर बैठे मैं अपने परिचित से पूछता यमुना कितनी दूर है। यमुना ब्रिज क्रास करते ही मेरे मुंह से निकला.. यही हैं यमुना जी.. उन्होंने तुरंत कहा.. बेवकूफ ये यमुना नहीं नाला है.. देख लिया.. बड़ा उछल रहा था। उनके बातों और लहजे का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ.. लेकिन यमुना की हालत देख दिल बैठ गया। और तब से जब तक मैं दिल्ली में रहा..मैं हर बार जब भी यमुना ब्रिज पार करता हूं.. हर बार यहीं सोचता हूं कि काश, कभी इतनी बाढ़ आए यमुना में कि सोफिस्टिकेटेड लुटियंस की दिल्ली डूब जाए.. यमुना अपनी जमीनों  पर वापिस कब्जा कर लें। मैं जब भी लुटियंस की दिल्ली से गुजरता हूं। ऊंचे ऊंचे मॉल और इमारतों को देखकर (जहां आम नागरिक घुसने से पहले एक बार सोचता है) मन में ख्याल आता है कि काश कभी दिल्ली में इतना तेज भूकंप आए कि ये कथित विकास की पैरोकार इमारतें धूल धूसरित हो जाएं। झुग्गियों और पिछड़े इलाकों में रहने वाले लोग इन जगहों पर अपने कब्जे जमा लें लेकिन ये संभव ही नहीं है। फिर देखता

मैं एक शहर में डूबने से डरता हूं..

चित्र
Courtesy_Google मैंने उत्तराखंड नहीं देखा मैंने टिहरी भी नहीं देखा इसलिए मैं तबाही की कल्पना करता हूं,  तो कंपकंपी सी होने लगती है लेकिन मैं दिल्ली से डरता हूं दिन रात बराबर  जैसे बच्चे अंधेरी रातों में भूतों से  वो शहर जो एक नदी को लील रहा है दिन रात बराबर मैं डर के मारे दरवाजे बंद कर लेता हूं.. गांव, कस्बों की ओर चला जाता हूं मैं एक शहर में डूबने से डरता हूं.. 24.06.2013