Rahul Gandhi: Sampradayikta, Dushprachar, Tanashahi se Aitihasik Sangharsh ‘राहुल गांधी : सांप्रदायिकता, दुष्प्रचार, तानाशाही से ऐतिहासिक संघर्ष

संविधान नागरिकों को अधिकार देता है, लेकिन जब संविधान ही संकट में हो तो वह नागरिकों से साहस की मांग करता है कि नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए खड़े होंगे. लेकिन डर और नफरत के अंधड़ में फंसे लोग सवाल करने का विवेक खो चुके होते हैं, वे अपनी नौकरी, ईएमआई और भविष्य की फिक्र में सत्ता से सवाल करने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं. बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो अपना सबकुछ गंवाकर अंधेरे के पार देखने की कोशिश करते हैं और नागरिक धर्म का पालन करते हुए सत्ता को आईना दिखाते हैं. वरिष्ठ पत्रकार दयाशंकर मिश्र (जो चंद रोज पहले देश के सबसे बड़े मीडिया समूहों में से एक में बतौर एग्जिक्यूटिव एडिटर लीडरशिप पोजिशन में थे) ने ऐसा साहस दिखाया है. दयाशंकर मिश्र ने अपनी किताब 'राहुल गांधीः सांप्रदायिकता, दुष्प्रचार और तानाशाही से ऐतिहासिक संघर्ष' के जरिए सत्ता के सामने आईना रखा है. ये आईना नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल को घटनाओं के आलोक में देखता है, जिसमें पाठक को साफ दिखाई देता है कि कैसे 2014 के बाद कभी गौ मांस के नाम पर तो कभी हिंदुत्व की रक्षा के लिए नागरिकों की हत्या शुरू हो जाती है. कैसे प्रतिरोध का पर्याय बने विश्वविद्यालय परिसरों में देशद्रोह का प्रवेश होता है और सवाल करने वाली आवाजों को खामोश करने की साजिशें रची जाती हैं. संवैधानिक संस्थाओं पर सत्ता का कब्जा, मीडिया का दुकान में तब्दील हो जाना और न्यायपालिका का सरेंडर किस तरह भारतीय लोकतंत्र को खतरनाक मोड़ पर ले आया है. एक के बाद एक घटनाओं को पेश करते हुए ये किताब पाठक को हतप्रभ कर देती है. उसे अघोषित तानाशाही का इलहाम होने लगता है, रोचक अंदाज में लिखे कथ्य की धारा में पाठक बहता जाता है, 752 पेज की किताब देखने में मोटी है, लेकिन पढ़ने में आसान है. पाठक जब लोकतंत्र को संकट में देख चिंतित होने लगता है, तब राहुल गांधी अपने 'आइडिया ऑफ इंडिया' के साथ नजर आने लगते हैं. पाठक उनकी तरफ आकर्षित होने लगता है, वह भारत जोड़ो यात्रा में धूल भरी सड़कों पर चलते राहुल गांधी की इमेज में अघोषित तानाशाही से मुक्ति दिलाने वाला तारणहार देखने लगता है. उसे नियमगिरी के आदिवासियों की लड़ाई लड़ने वाले राहुल गांधी और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के हाथ में शक्ति देने की बात करने वाले 2023 के राहुल गांधी एक जैसे लगने लगते हैं. दशकों के अंतर में व्यक्त विचार एकमेव लगते हैं. गौरी लंकेश और रोहित वेमुला के साथ खड़े राहुल गांधी, दानिश अली से मिलते राहुल गांधी की तस्वीरें पाठक को चकित कर देती हैं. पाठक अपने अंतर्मन में सवाल करने को बाध्य होता है कि उससे राहुल गांधी को समझने में इतनी देर कैसे हुई? यहीं मीडिया की भूमिका सवालों के घेरे में आ जाती है. दयाशंकर मिश्र ने अपनी किताब में मीडिया पर विस्तार से बात की है, कैसे सत्ता को नमक-रोटी पर सवाल करने वाला पत्रकार भी बर्दाश्त नहीं होता है. सिद्दीक कप्पन ने तो सत्ता की मनमानी के खिलाफ हाथरस जाने का दुस्साहस किया था, कप्पन हाथरस में दलित बिटिया को आधी रात को जलाए जाने के प्रकरण की रिपोर्ट करने जा रहे थे. आखिर सत्ता उन्हें जेल में क्यों न डालती! और यही मीडिया और सत्ता का गठजोड़ है, जो एक लंबे समय तक नागरिकों के सामने राहुल गांधी की छवि को गलत तरीके से पेश करती है. और नागरिक इस मीडिया पर यकीन कर राहुल गांधी के 'आइडिया ऑफ इंडिया' से आंख मूंदे व्हाट्स यूनिवर्सिटी के वर्चुअल वर्ल्ड में विचरण करते रहते हैं. किताब घटनाओं के जरिए पाठकों के सामने सवाल रखती है और उन्हें वक्त देती है कि वे विचार करें कि क्या जो हुआ वह सही था, या गलत का साथ देना ही सही है? तिरंगे के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले नागरिक यह सवाल क्यों नहीं कर पाते हैं कि प्रधानमंत्री एक धर्म विशेष के प्रतीक सेंगोल के आगे क्यों दंडवत हो गए? प्रधानमंत्री ने नागरिक अधिकारों की सबसे बड़ी अदालत में सेंगोल को कैसे स्थापित कर दिया? क्या ये प्रधानमंत्री के द्वारा बहुसंख्यक हिंदुओं का तुष्टिकरण नहीं था? क्या भारत एकधर्मी राज्य है? जहां प्रधानमंत्री हवन पूजन करें और सेंगोल के आगे नतमस्तक हो जाए? मीडिया इस पर चुप क्यों रहा? ये सारे सवाल जब पाठक के सामने आते हैं तो समझ आता है कि हिंदू राष्ट्र का यूटोपिया कैसे साकार किया जा रहा है. किताब का केंद्रीय विषय राहुल गांधी हैं और जाहिर है कि किताब राहुल गांधी को लोकतंत्र के नायक के रूप में स्थापित करती है, लेकिन किताब की ईमानदारी यह है कि वह राहुल गांधी को उनके विचारों के आलोक में देखती है. जो पाठक राहुल गांधी के विचारों से अपने आप को जोड़ पाते हैं, किताब उन्हें बेहद पसंद आएगी. लेकिन 2014 के बाद की मीडिया के नजरिए से राहुल गांधी के बारे में विचार रखने वाले लोगों को ये किताब हतप्रभ कर सकती है. दिलचस्प है कि राहुल गांधी के बारे में बिल्कुल अलग सोच रखने वाले दयाशंकर मिश्र दो दशक से ज्यादा समय तक मीडिया की मुख्यधारा का हिस्सा रखते हुए भी अपने आप को बचाए रख पाने में सफल रहे, राहुल गांधी को देखने की नजर बरकरार रख पाए... लेकिन इस किताब के लिए उन्हें अपना सबकुछ दांव पर लगाना पड़ा और अंततः एग्जिक्यूटिव एडिटर के पद से इस्तीफा देकर उन्हें राहुल गांधी पर किताब लिखने की कीमत चुकानी पड़ी. ये बताता है कि कैसे सत्ता ने मीडिया सहित तमाम संस्थाओं पर कब्जा कर रखा है. क्या 2014 से पहले नरेंद्र मोदी पर किताब लिखने वाले किसी भी शख्स को मुख्यधारा की किसी मीडिया कंपनी ने नौकरी से निकाला था? दयाशंकर मिश्र का साहस हमें निरूत्तर कर देता है. सबकुछ अपनी मनमर्जी का चाहने वाली सत्ता, राहुल गांधी को पब्लिक स्पेस देना ही नहीं चाहती, चाहे वह संसद हो या सड़क... ऐसे में राहुल गांधी पर किताब लिखने का साहस अद्भुत है. किताब में दिलचस्पी रखने वाले लोग ऑनलाइन इस किताब को खरीद सकते हैं. लेखक के मुताबिक ये किताब अमेजन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है.

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