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15 बरस से ज्यादा हो गए

15  बरस से ज्यादा हो गए मां से बिछड़े हुए बतियाए हुए, उसकी लोरी सुने हुए 15 बरस से ज्यादा... मां, अपने मैके गई थी मेरे मामा के यहां अपनी मां के पास लेकिन अगली ही सुबह उसने लौटने वाली ट्रेन पकड़ ली हमारे लिए... लेकिन, 15 बरस बाद भी हम रास्ता देख रहे है मां के लौटकर आने को.. मैं चाहता हूं.. गर्मी की भरी दोपहरी में मां के साथ झप्पर के नीचे बैठकर जात्ता पीसना दाल और गेंहू की घानी डालना और भूल जाने पर, चौंककर कहना, मां घानी डालो मां के पैरों पर पैर चढ़ाकर जात्था खींचना.. और मां की लोरी पर जात्ते के साथ झूमना..मैं चाहता हूं... 15 बरस बाद आज भी.. मां, मैं चाहता हूं तुम्हारी आवाज में.. सोहर और शादी के गीत सुनना 15 बरस बाद आज भी ठीक उसी तरह जैसे, मैं रूठ जाता था खाने से मना कर देता और तुम गाती.. मेरी शादी की कल्पना कर मैं पीड़े पर बैठा रीझता तुम गाती रहती.. और, मैं खाते हुए कहता कोई और सुनाओ.. तुम मुस्कुराती.. मैं रीझता.. आंखें भर आई आज 15 बरस बाद.. इतने साल..गुजर गए   एक बच्चे के लिए 15 बरस का समय,

FIRE IN BABYLON

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फिल्मः फायर इन बेबीलोन (70 के दशक में अपराजेय रही वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम पर आधारित ) निर्देशकः स्टीवन रिले 1990 के बाद पैदा हुए क्रिकेटप्रेमियों के लिए यह कैरेबियन सागर में उठने वाली खौफनाक लहरों की तरह होती, जो पलक झपकते ही उनके पसंदीदा बल्लेबाज की गिल्लियां बिखेर देती। विकेट अपनी लंबाई से तीन चार गुने दूर छिटके नजर आते। 22 गज की पट्टी के एक छोर से रॉबर्ट्स और होल्डिंग को दौड़ते देख किसी भी बल्लेबाज के रोंगटे खड़े हो जाते, जब दोनों कैरेबियाई गेंदबाजों के दिल में किसी गोरे बल्लेबाज का नस्लीय कमेन्ट चुभ रहा हो। फायर इन बेबीलोन हमें एक ऐसे समय में ले जाती है। जब क्रिकेट सिर्फ क्रिकेट नहीं था। यह वह दौर था जब तेज गेंदबाजी किसी कप्तान की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा होती थी और क्रिकेट का मतलब रन बटोरने और विकेट लेने से कहीं ज्यादा था। फायर इन बेबीलोन 70 के दशक में अपराजेय रही वेस्टइंडीज टीम के सुनहरे दौर की गाथा है। ये वही समय था जब अधिकांश टीमों के पास तेज गेंदबाजों की फौज हुआ करती थी। भद्रजनों का यह खेल पहचान की लड़ाई बन चुका था और नस्लीय कमेन्ट अपनी गहरी पैठ बना चुके थे। एक ब

अल्बर्ट हॉल, मिस्त्र की ममी और पधारो म्हारे देश

हजारों सालों से मरी हुई देह को मसाला लगाकर सहेजा गया हैं। निर्जीव देह आज भी उसी तरह सोई है जैसे जिंदा शरीर को मौत ने अभी गले लगाया हो। दिन भर में सैकड़ों लोग यहां घूमने आते है और उनकी बातें यहां कोलाहल पैदा करती है। लेकिन ममी को देख लोग एकबारगी हतप्रभ हो जाते हैं। जिसके बारे में आपने सिर्फ किताबों में पढ़ा हो, अगर वह आपकी आंखों के सामने पसरी मिली तो चौंकना लाजिमी है। भारत के सबसे खूबसूरत म्यूजियमों में से एक अल्बर्ट हॉल में मिस्त्र की यह ममी आज भी पूरे तामझाम के साथ सहेज कर रखी गई है। अल्बर्ट हॉल में कई सारी चीजें आपको देखने को मिल जाएंगी। दीवारों पर टंगी पेटिंग्स, मूर्तियां और सदियों पुराने कपड़ें आपको लुभा सकते हैं। यहीं चबूतरे पर 1883 से संरक्षित 322 से 30 ईसा पूर्व की ममी सोई मिल जाएगी। यह मिस्त्र के प्राचीन नगर पैनोपोलिस के अखमीन क्षेत्र की है। जो मिस्त्र में ममीफिकेशन के लिए अग्रणी शहरों में जाना जाता हैं। सालों से पड़ी इस ममी की लकड़ी का ताबूत और मृत देह के ऊपर लिपटी कुछ पट्टियां खराब हो गई थी। जिन्हें ठीक कराया गया है। इसके लिए बाकायदा 2011 में मिस्त्र से एक दल बुलाया गया

शहर में भादो की बारिश

गुलाबी शहर का रंग इस भादो में मटमैला हो गया। सावन में फुहारों का इंतजार कर रहे इस शहर को बादलों ने खूब भिगोया। शहर की तस्वीर कुछ मटमैली हो गई। पहाड़ अपनी जगह से खिसककर समतल धरातल पर बिछ गए तो निचले इलाकों को मौसमी लहरों ने खूब हिलोरा। सीवर जाम हो गए, नालियां उफनने लगी और कचरा सड़कों पर बिखर गया। सीएम साहब सहित सभी ने माना, शहर में अतिवृष्टि हुई हैं। लेकिन जंगल में मोर नाचा, किसने देखा की तर्ज पर, रामगढ़ में बारिश हुई किसने देखा? रामगढ़ और जमवारामगढ़ में रहने वालों को यह कहावत ज्यादा समझ में आई। पूरा शहर बरसात में डूबा नजर आया, लेकिन रामगढ़ बांध में पानी नहीं पहुंचा। अमानीशाह नाला (कहते है पहले यहां द्रव्यवती नदी बहती थी) सूखा रहा। बारिश ने शहर का रंग बदला, लोग बेघर हुए, राहत शिविर खुले और सरकार के मुखिया के हुक्मरान का दौरा भी हुआ। सरकार की व्यस्तता बढ़ी, बारिश से उजड़े लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए। बारिश के पानी में उखड़ी सड़क रातों रात बिछ गई, सरकार की खूब वाहवाही हुई किसी के चेहरे पर दर्द नजर नहीं आया। रात बीती भी नहीं थी, सड़क अपनी औकात पर आ गई, राहत शिविर का भी यहीं

मां, मुझे आंचल ओढ़ा देती

मैं कितनी भी लंबी चादर खरीद लूं ये मां का आंचल नहीं हो सकती. इसके जड़ीदार कोने और रंग  मां की साड़ी पर बिखरी पत्तियों की छींट और उसके रंग जैसे नहीं है. मां अपने आंचल से ढंक देती थी सूरज को, जब मैं सोना चाहता था. धूप, मुझे जगा नहीं पाती थी जब मैं मां के आंचल तले छुप जाता था. मां का स्पर्श बहुत गर्माहट भरा था. जब वह मुझे चिपका लेती अपने सीने से,  माघ की ठंड में  जब मैं नहाने से मना करता. मैं अक्सर मां से लिपट कर सोता  दोनों हाथों से उसे दबोच लेता. जब मैं भयावह सपने देखता मां, मुझे आंचल ओढ़ा देती. मैं गर्माहट भरी नींद में डूब जाता मां, मेरी पीठ थपथपा देती.

तुम्हारे साथ बैठे हुए...

मैं जिसे छोड़ आया था कहीं और.. वो यहां मौजूद रहता है तुम्हारे होते हुए भी जब मैं तुम्हारे संग तन्हा होता हूं मुझे अपने फैसले पर विस्मय होता है चार लोगों के साथ बैठे हुए तन्हा मिलता हूं.. मेरे पास कहानियां है..अपनी लेकिन सुनने को कोई तैयार नहीं ना तुम..ना कोई और जिनके नाम से जमाना मुझे पहचानता है क्योंकि कहानियों में तुम भी हो मौजूद लोगों के किस्से है और मैं भी हूं.. लेकिन मेरे अपने ?..जिन्हें जमाना मेरा कहता है सवाल वाजिब है..ये मेरे अपने दरअसल, मेरे अनुभव है..सुख दुख की थाली में बंटे हुए तुम चुन लो.. अपनी मर्जी से अपनी थाली जो तुम्हें पसंद हो अपने स्वाद के मुताबिक जो तुम चाहो.. शायद मैं तुम्हें मिल जाऊं नमकीन आंसू की तरह.. खुशी की मिठास लिए फिर भी मैं तन्हा रहूंगा तुम्हारे चुनने के बावजूद क्योंकि तुमने अपनी थाली चुनी है मुझे नहीं.. खुशी और गम से भरी मेरी कहानियां है जख्म और कोमल एहसासों से बुनी हुई इन्हें मैं अलग नहीं कर सकता मैं अब भी तन्हा हूं.. तुम्हारी खाने की टेबल पर तुम्हारे साथ बैठे हुए...

कहानीः मुन्ना बो

ये कहानी लिखने का मेरा मकसद उस खेतिहर मजदूर महिला की स्थिति को बयान करना था। जिसे कई बीघा खेतों के मालिक , स्वयंभू राजाधिराज अपनी उपभोग की वस्तु समझते थे.... राम प्रसाद के तीसरे बेटे की शादी में मुन्ना बो जमकर नाचीं। गांव के बैंड बाजे में उस समय नागिन धुन खूब चलन में था। बाजे वालों की टिरटिराती धुनों पर उसके बदन के लोच ने मुहल्ले के पहलवानों का चैन नोंच लिया। दरअसल मुन्ना बो पहली बार गांव वालों के सामने आई थी , अलहदा तरीके से बिना लाज शर्म के बाजे में नाचते हुए और उनका इस तरह सबके सामने आना खुले आकाश में लपकती बिजली की तरह था। हालांकि रामप्रसाद के तीसरे बेटे की शादी थी , इसलिए  दूल्हे का श्रृंगार देखने में भी व्यस्त थे। लेकिन परछन खत्म होते ही सबकी निगाहें मुन्ना बो पर टिक गई। तराशे हुए नैन नक्श और चम्पई रंग वाली मुन्ना बो की अल्हड़ चाल को देखकर मुहल्ले के छोकरों और मर्दों के बदन में सांप लोटने लगा। बिना संकोच किए वह किसी से भी बात कर सकती थी। यह उसके व्यक्तित्व की खासियत थी या कमजोरी यह खुद उसे भी मालूम नहीं था। तीसरे भाई की शादी के बाद मुन्ना पहली बार पंजाब से लौटे थे। दरअ