कहानीः मुन्ना बो
ये कहानी
लिखने का मेरा मकसद उस खेतिहर मजदूर महिला की स्थिति को बयान करना था। जिसे कई
बीघा खेतों के मालिक, स्वयंभू राजाधिराज
अपनी उपभोग की वस्तु समझते थे....
राम प्रसाद के तीसरे बेटे की शादी में मुन्ना बो जमकर नाचीं। गांव के
बैंड बाजे में उस समय नागिन धुन खूब चलन में था। बाजे वालों की टिरटिराती धुनों पर
उसके बदन के लोच ने मुहल्ले के पहलवानों का चैन नोंच लिया। दरअसल मुन्ना बो पहली
बार गांव वालों के सामने आई थी, अलहदा तरीके से
बिना लाज शर्म के बाजे में नाचते हुए और उनका इस तरह सबके सामने आना खुले आकाश में
लपकती बिजली की तरह था। हालांकि रामप्रसाद के तीसरे बेटे की शादी थी, इसलिए दूल्हे का श्रृंगार देखने में भी व्यस्त थे। लेकिन परछन खत्म
होते ही सबकी निगाहें मुन्ना बो पर टिक गई।
तराशे हुए नैन नक्श और
चम्पई रंग वाली मुन्ना बो की अल्हड़ चाल को देखकर मुहल्ले के छोकरों और मर्दों के
बदन में सांप लोटने लगा। बिना संकोच किए वह किसी से भी बात कर सकती थी। यह उसके
व्यक्तित्व की खासियत थी या कमजोरी यह खुद उसे भी मालूम नहीं था। तीसरे भाई की
शादी के बाद मुन्ना पहली बार पंजाब से लौटे थे। दरअसल, मुन्ना ने भागकर शादी की थी, घरवालों की मर्जी के
खिलाफ, इसलिए शादी के बाद वह पंजाब भाग गए और लगभग दस साल
वहीं रहे, अपनी बीबी के साथ। मुन्ना ने जब भागकर शादी की तब
उनकी उम्र 18 से 19 साल की रही होगी और मुन्ना बो की उससे भी कम।
तीसरे भाई की शादी के लिए
लौटे मुन्ना का हालचाल लेने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी। गली से गुजरने वाला हर
शख्स पूछ लेता 'का हो मुन्ना का हाल बा'। सहज
दिल के आदमी मुन्ना 'आवाज के साथ हाथ' भी
उठा लेते कि मुहल्ले के लोग उनका हाल पूछ रहे है। मुन्ना के लंगोटिया यार भी उनके
घर खूब आने जाने लगे थे। हर शाम मुर्गे की टांग और ठर्रा के साथ गुलजार होती। हां,
एक बात थी, ये दावतों का दौर हमेशा मुन्ना के
आधे ईट और आधे से ज्यादा मिट्टी के बने मकान में होता था। इसमें आसानी इस बात की
होती कि मुन्ना अपने मां बाप से अलग अपनी बीबी के साथ रहते थे। लिहाजा उनके
मित्रों को यह जगह ज्यादा सेफ लगती थी। क्य़ोंकि तब उनके घरवालों को पता नहीं चल
पाता कि वे कहां खा पी रहे हैं और अपनी बीबी की गालियां सुनने से बच जाते।
भला मुन्ना के घर मुर्गे
और दारु की पार्टी हो और मुन्ना बो इससे दूर रह जाए। ये कैसे हो सकता था? वह भी मुन्ना के दोस्तों के साथ घुलने मिलने लगी। ज्यादातर लोग उन्हें
चाची और भउजी कहकर बुलाते। लेकिन इसका मतलब उन्हें सम्मान देना नहीं, बल्कि उनके और करीब जाना था। इस दौरान मुन्ना और सरजू के बीच खूब छनी।
दोनों जोड़ीदार दारु पीते और साथ-साथ नाचते गाते। एक बार दोनों ने दिन दोपहर ही
खूब पी और इकबजवा वाले से बाजा बजवाकर नुक्कड़ पर स्थित शिवाले के सामने खूब नाचे
कुरता फाड़के, जब तक की दोनों अधनंगे नहीं हो गए।
सरजू भी मुन्ना की तरह थे।
सीधे, लेकिन शातिर भी। उनकी बीबी का भी खूब जलवा था। दरअसल
उनकी शादी के पीछे बड़ा लोचा हुआ था और यह किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं था। सरजू
बो को उनके बड़े भाई जमुना रानीपुर से भगा लाए थे। तब वह कच्ची उम्र की लड़की थी,
जो जवानी का आवरण ओढ़ चुकी थी। जवान और दिलकश 16 साल की बाला पर
सरजू खजूर की तरह आ गिरे। उस समय सरजू और उनकी पत्नी की उम्र समान थी। इसलिए दोनों
एक दूसरे की ओर तेजी से आकृष्ट हुए।
लड़की को उपभोग की वस्तु समझने वाले जमुना
छोटे भाई की हरकत पर उखड़ गए। जो उनका किया हुआ शिकार ले भाग रहा था। दोनों भाइयों
के बीच जमकर लउर लाठी हुई और उनके बूढ़े मां बाप कुछ ना कर सके। दोनों की जवानी
टकराती रही और इसका परिणाम यह हुआ कि उनका परिवार टूट गया। जमुना को हार माननी
पड़ी और कच्चे उम्र की वह नाजुक कली सरजू संग बहने लगी, जलकुंभी
की तरह जो किसी भी घाट पर ठहर जाती है। जब तक नदी का प्रवाह तेजी से धक्का ना दे।
लेकिन कहानी का अंत यह नहीं है कहानी तो मुन्ना बो की है।
सरजू ने अपनी बीबी को खूब
निचोड़ा और धीरे-धीरे उनका मन उससे उचटने लगा था। इस बीच मुहल्ले के पेड़ पर
मुन्ना बो के रुप में पका रसीला फल नजर आया, जिसे तोड़
खाने के लिए सरजू के साथ कई लोग बेचैन हो उठे। इनमें रिटायर्ड फौजी से लेकर
मुहल्ले के पहलवान भी शामिल थे। मुन्ना बो को पाने की हसरत थामे सरजू की घनिष्ठता
मुन्ना से खूब बढ़ी और यह लोगों को दिखने भी लगी थी।
अब तक मुन्ना बो खेतों पर
नहीं जाती थी और घर पर ही रहती थी। मुन्ना मजदूरी करने जाते और अपनी बीबी को रानी
की तरह रखने की कोशिश करते। इस बीच एक अफवाह उड़ी कि मुन्ना और सरजू आपस में बीबी
बदलान का खेल खेलते है। इस कानाफूसी ने पूरे मुहल्ले में तहलका मचा दिया। गांव के
मनचले इस खबर की सच्चाई का पता लगाने में जुट गए। अब हर किसी को मुन्ना बो और सरजू
बो की तस्वीर उल्टी नजर आती। लोगों को मुन्ना और सरजू की नजदीकी का निष्कर्ष मिल
गया था।
मुन्ना बो की जिंदगी तेजी
से बदलने लगी, मुन्ना को कमाने के लाले पड़ने लगे थे और उन्हें काम
नहीं मिल रहा था। गारा गिलावा करने से काम चल नहीं पा रहा था। लिहाजा मुन्ना खेतों
में मजदूरी करने जाने लगे और धीरे-धीरे मजदूर से खेतिहर मजदूर में ढलने लगे थे।
मुन्ना खेतों में जाते तो देखते कि और भी महिलाएं अपने
पति और बच्चे के साथ खेतों में हड्डियां गला रही है।
इसका असर यह हुआ कि मुन्ना भी
अपनी बीबी को खेतों में ले जाने लगे, हाथ बंटाने के लिए। लोग
मुन्ना बो को हसरत भरी निगाहों से देखते और पूछ बैठते 'का हो
का हाल बा'। मुन्ना बो मुस्कुरा देती। हर छोकरा, अधेड़, मुन्ना बो से बतियाना चाहता। चूंकि सरजू के
साथ उनकी नजदीकियों का निष्कर्ष सबको पता चल चुका था। इससे दोनों लोगों के बीच मनमुटाव
सा हो गया था। दो मुर्गी के उस परिवार को नए साथियों की तलाश थी, सुबह शाम हंसी मजाक के लिए, बोलने बतियाने के लिए।
मुन्ना बो के बारे में जो
अगली खबर उड़ी वह थी उनके चंदन के साथ सोने की। मुन्ना अपनी पत्नी को संतुष्ट करने
में नाकाफी साबित हो रहे थे। ऐसे में उनकी पत्नी ने नया हमबिस्तर ढूंढ़ लिया, उन्हीं की नाक के नीचे। चंदन उनके साथ खेतों में काम करने जाता, खिलाता-पिलाता, हंसी मजाक का दौर चलता और शाम को
मुन्ना बो का बोझ भी दूसरे खेप में लाकर पटक देता। मुन्ना बो की जिंदगी एक बार फिर
रौ में थी। मुन्ना अब मजदूरी छोड़ चुके थे और पूरी तरह खेतिहर मजदूर बन गए थे,
जो अपनी बीबी के साथ खेतों में पूरे उम्मीद के साथ काम कर रहा था कि
उसकी दुनिया बदल जाएगी।
इस मेहनत का फल भी उन्हें
मिला वे अधियां और बंटाई पर खुद की खेती भी करने लगे थे। लेकिन खेती करना इतना
आसान ना था। रोपाई, बुवाई और गुड़ा़ई के लिए लोगों की जरुरत थी और पैसे
की भी। मजदूर मुफ्त में नहीं मिलते, उनके भी पेट होते है।
लेकिन मुन्ना के साथ मुन्ना बो थी। इसका असर यह था कि हर कोई उनका हाथ बंटाने चला
आता, जब पेट की भूख पर शारीरिक भूख हावी हो जाती।
नए नए जवान
हुए छोकरों को मुन्ना बो के साथ बतियाने और उनकी हंसी पर ताल मिलाने में मजा आता।
जो जन्म से ही खेतिहर मजदूर थे। मुन्ना बो से उनकी सबसे बड़ी उम्मीद उस स्वाद को
चखना था जो हर अठारह बरस की दहलीज के पास या पार हो चुके युवा शरीर को होती हैं।
शारीरिक सुख की तलाश में भटक रहे छोकरे अपनी भूख मिटाने की आस में मुन्ना बो के
खेतों की तरफ चल पड़ते। हालांकि घरवालों को पता ना चले, वे
इस बात का ख्याल रखते और चुपचाप सुबह सवेरे मुन्ना बो के संग हो लेते।
मुन्ना बो का जिन लड़कों
से काम बन रहा था। उन्हीं लड़कों से उनकी नजदीकी भी बढ़ रही थी। अपना काम निकलवाने
के लिए मुन्ना बो छोकरों की मांग पर मुस्कुरा देती और वे लड़के मुन्ना बो का हाथ
बंटाने को तैयार मिलते। यह सिलसिला उन लड़कों का मन उचटने तक चलता।
मुन्ना बो को पेशकी और
अधियां बंटाई की खेती में एक दो साल तक फायदा भी मिला। लेकिन खेती हमेशा से घाटे
का सौदा थी और उनके इलाके में आज भी है। टमाटर और मिर्च की नगदी का लाभ गेहूं के
घाटे से बराबर हो जाता, यानि लाभ का मतलब जीरो था।
खेती मुन्ना बो को भौतिक सुख ना दे सकी। लेकिन खेती के बहाने उनकी आबरु लुटती रही।
मुहल्ले के लड़कों से, पहलवानों से, अधेड़ों
से, बूढ़ों से जिन जिन से पैसा मांगने गई। उन्हें पैसा मिला,
लेकिन चार्ज के रुप में उनका जिस्म भीगे हुए कपड़ों की तरह खूब
निचोड़ा गया, ब्याज के रुप में अलग से।
मुन्ना बो के किस्से
फिल्मी सितारों के अफेयर की तरह गांव के हर टोले में फैल गए। दूसरे टोले वाले भी
मुन्ना बो का शिकार करने की तलाश में उन्हीं के चौखट पर जाल बिछाने लगे। कइयों को
इसमें सफलता भी मिली और उन्होंने जमकर लिंग सुख का आनंद उठाया। मुन्ना बो लुटती
रही, निचोड़ी जाती रही फटे हुए दूध से बने पनीर की तरह.
जिसकी चुगली उनके उभारों की लटकी मांसपेशियां कर रही थी। क्योंकि मुन्ना बो अमीर
बनना चाहती थीं। खेती करके, मजदूरी करके...लेकिन ये इतना
आसान ना था।
मुन्ना बो अब इस खेल को
समझने लगी थी। या यूं कहे कि मुहल्ले की सच्चाई का पता उन्हें चल चुका था। कई बीघे
खेतों के राजाधिराजों की नंगई उन्होंने देख ली थी। कौन कितना सफेद और किसका
पिछवाड़ा कितना दागदार है। ये उन्हें मालूम चल गया था। पूरा मुहल्ला ऐसे ही लोगों
से पटा पड़ा था और मुन्ना बो अब इसके केन्द्र में आ गई थी। लेकिन उनके चारों ओर
कुंठाग्रस्त मुल्लों की भारी जमात थी। जो कई मामलों में अवसाद से पीड़ित थे और
इनमें दो जांघों के बीच का सुख सबसे ऊपर था।
उस मुहल्ले की आलीशान सामंती कोठियों
की दीवारों के पास इन बीमार मर्दों की करोड़ों कहानियां थी। जो अपनी बहू बेटियों
को ढककर रखते थे और दूसरे की बीबी को चुभती आंखों से गोदकर, ये उस मुहल्ले की सच्चाई थी। वहां के लड़के किसी भी बात पर मां बहन कर
सकते थे और कभी भी लंद फंद दिखा सकते थे, किसी भी मामले में,
किसी भी बात पर।
मुन्ना बो उजड़ गई थी लेकिन एक मामले में बेहद अमीर भी हुई थी। उस मुहल्ले में वह चाहती तो किसी को भी नंगा कर सकती थी, अपने एक इशारे पर। जहां किसी छोटी जात के लड़के से किसी लड़की के छू जाने पर लड़के के जान पर बन आती थी। पैर तोड़कर हाथों में रख दिए जाते थे। जहां लड़कों के टी-शर्ट पहनने पर पहलवान उनकी बांहे मरोड़ सकते थे और तेरे नाम स्टाइल में संवारे बालों को उखाड़ सकते थे।
मुन्ना बो की स्थिति बिगड़
चुकी थी। नौबत यहां तक आ गई थी कि खेतों के रखवारे उनसे कुछ किलो मिर्च के बदले
आबरु मांग लेते। ऐसा मिर्च की पहली तुड़ाई से शुरु होता और आखिरी तक चलता। पहली
तुड़ाई के समय मिर्च की कीमत सौ से डेढ़ सौ रुपए प्रति किलो होती यानि 10 किलो
मिर्च की कीमत हजार से डेढ़ हजार का बंदोबस्त करा देता, शाम ढलते-ढलते। जबकि उनके साथ के मजदूर तीन रुपए प्रति किलो के हिसाब से
तुड़ाई करते। लेकिन मुन्ना बो के लिए यह फायदे का सौदा साबित होने लगा था। सिर्फ
सूरज डूबने के बाद पचास बीघे खेत में फैले मिर्च के पौधों की आड़ में जांघ से जांघ
रगड़ने के लिए।
दिन भर खेतों में आवाज लगाने और पानी मिलाने के आदि हो चुके
रखवारों के लिए 10 किलो मिर्च इधर उधर करना, कोई मुश्किल काम
नहीं था। मुन्ना बो के लिए यह फार्मेलिटी बन चुका था। इसलिए वह इस दांव को अक्सर
इस्तेमाल करने लगी थी। कहते है शेर के मुंह खून लग जाए तो वह और हिंसक हो जाता है।
बस यहीं हुआ मुन्ना बो के साथ। उनका मन हरे रंग के गाँधी के चित्रों वाले नोटों का
आदि हो चुका था। हल्की सर्दी के मौसम में शाम को मिर्च की पत्तियों पर पड़े ओस की
बूंदों को झाड़ने के बाद कड़कड़ाते नोटों को रगड़कर चांदी के तारों को तोड़ना
उन्हें बेहद सुकून देता।
मुन्ना बो इस खेल को वह
खेतों से निकाल कर मुहल्ले में ले आई और पूरे गांव में फैला दिया। हरे रंग के लंबे
नोटों से खेल रही मुन्ना बो के पतिदेव इस खेल में कब के कोसों पीछे छूट चुके थे।
ये खुद मुन्ना को भी मालूम नहीं था। खैर, उन्होंने
ने इसकी परवाह नहीं की। मुन्ना बो बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में जाती और किसी के यहां
से तीस हजार, किसी के यहां पचास हजार उठाने लगी। मुहल्ले के
पहलवान और रिटायर्ड फौजी उनके एक बुलावे पर लुढ़कने लगे। मुन्ना बो की हसरतें
परवान चढ़ती रही, नोटों से खेलने का शौक चर्राता रहा।
कर्ज का बोझ अब भारी होने
लगा था। तमाम पाउडर लगाने के बाद जिस्म का ढीलापन कसावट में तब्दील नहीं हो पा रहा
था, उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद। चमड़े का रस पीने
वालों ने उन्हें पूरी तरह गार लिया गाय के थन की तरह। लोग उनसे दूर भागने लगे थे।
जिन घरों में वह शान से घुस जाती थी। वहां के दरवाजे उनके लिए बंद हो चुके थे। कुछ
मांगना भी होता तो उन्हें दरवाजे पर खड़ा होना पड़ता। महिलाएं घूंघट में मुंह
छुपाए, उनसे दरवाजे पर निपट लेती। ताकि घर की दीवारों पर
उनकी परछाई भी ना पड़े। ये उन घरों का हाल था, जिनमें रहने
वाले आधे से अधिक लोगों के बदन का आतंरिक नक्शा मुन्ना बो को मालूम था।
बीबी के खतरनाक शौक से
हारे हुए मुन्ना को मारने की धमकियां भी मिली। मुन्ना बो के बदन की रोशनी के उजाले
का तिलिस्म खत्म हो चुका था। हर शाम उनके दरवाजे पर ऊंची ऊंची आवाजों में किसी की
गालियां गूंजती रहती थी और मुन्ना बो अपनी चुप्पी से उसे ढंकने की कोशिश करती। इस
बीच मुन्ना बो का पुराना परिचित चंदन मुंबई से लौटा। मुन्ना बो को उसने भरी जवानी
में देखा था और उनकी यह हालत उससे बर्दाश्त नहीं हुई। अफवाहें फैली कि मुन्ना बो
उसके कंधे पर सिर रख कर खूब रोई। मुन्ना बो को हमदर्द मिला था और मुन्ना को दोस्त, तीनों ने मिल बैठकर बातें की और इस स्थिति से निकलने का रास्ता ढूंढ़ा।
कर्ज के बोझ को सिर पर
लादे मुन्ना बो एक रात चंदन के साथ उड़ चली, मुन्ना भी
उनके साथ हो लिए। अगली सुबह मुन्ना बो के घर के सामने वाले मंदिर पर सैकड़ों लोगों की भीड़
उस बंद दरवाजे में लटके ताले की चाभी ढूंढ़ रही थी। लेकिन वह किसी को नहीं मिली और
उसे तोड़ने की हिम्मत भी किसी पहलवान में नहीं थी। वे तमाम लोग जिनके हजारों रुपए
मुन्ना बो ने लिए थे, इस वादे पर कि अगली फसल कटने के बाद चुका देगी। उनकी दीवारों के ईट गिन
रहे थे, हालांकि वह आधे से ज्यादा मिट्टी का ढेर बन चुका था।
मुन्ना बो को गए कई साल हो
गए लेकिन वह लौट के इस मुहल्ले में नहीं आई। हां, बीच-बीच में उनके आने की अफवाहें उड़ती रहीं। जब उनकी सर्किल का कोई गांव
लौटता है। उस दिन रुपए देने के बदले मुन्ना बो संग खेलने वाले गांव भर के पहलवान
लट्ठ लेकर मिट्टी के उस ढूंहे समान घर के बंद दरवाजे पर पहरा देते हैं...।
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