प्रिये, तुम अनन्त आकाश हो!
Pic: Google |
मैं हर दिन
हर रात
हर पहर
हर पल
अपनी सैकड़ों फंतासियों में
हर पल पिरो रहा हूँ तुम्हें
मेरी सांस की हर माला
तुम्हारे बदन की महक में लिपटी है.
मैंने इन सहस्त्रों सालों में
करोड़ों फूलों को स्पर्श किया है
लेकिन वो कोमलता भरी गर्माहट
मुझे नहीं मिली मृदुल पंखुड़ियों में
मैं हजारों योनियों में जन्मा
सहस्त्रों वर्षों भटका तुम्हें पाने को
बगिया बगिया इस ब्रह्मांड में
ढूंढ़ते हुए तुम्हारा एक स्पर्श
मैंने करोड़ों आकाश गंगाओं को
नंगी आंखों से निहारा
उनकी आंखों में झांक के देखा
लेकिन नहीं मिली वो हया
जो तुम्हारी आँखों में है
जिनकी क्षणिक बौछार भिगो देती है मुझे
तुम्हारा पका कत्थई जिस्म
छाया है मेरी आँखों पर
अनन्त आकाश की तरह
मैं अपनी सीमित कल्पनाओं में
तुम्हें उकेर रहा हूँ
अपनी अंगुलियों से रंग भर रहा हूँ
मन की कन्दराओं में बनी
तुम्हारी छाया भित्तियों में
मन की कन्दराओं में बनी
तुम्हारी छाया भित्तियों में
पलकों पर, होंठो पर
ग्रीवा से उतर कर नाभि तक
नितम्बों से उठाकर
कूल्हों पर फैला दिया है
धानी रंग
तुम्हारी पीठ पर फैला दी है
गुलाब की पंखुड़ियां
ताकि
चांदनी का ताप भी न पड़े
तुम पर...
तुम्हारी ग्रीवा पर
मेरे चुम्बन की थाप है
और पैरों में लगा है
मेहंदी का रंग
जांघों पर बिखरे हैं
हरसिंगार ताजे ताजे
तुम बताओ
मैं अपने होंठ कहाँ रखूं
या तकता रहूं तुम्हें
तन्हा ध्रुव तारे की तरह
18 नवम्बर 2017
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआप की रचना को सोमवार 18 दिसम्बर 2017 को लिंक की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
Thanks :)
हटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंThanks :)
हटाएं