Dangal Movie; एक बेटी का अपने नेशनल चैंपियन पहलवान बाप को पटक देना

आमिर खान की फिल्म दंगल फोगट बहनों के संघर्ष और सफलता की कहानी से ज्यादा महावीर फोगट के अंतर्द्वंद की कहानी है, जो एक पिता, कोच और खिलाड़ी के रूप में अपनी इच्छाओं, असफलताओं, कामयाबी और सपने को पूरा करने के लिए स्वयं से ही लड़ रहा है। इंटरवल के बाद का वो दृश्य मस्तिष्क में घूम रहा है, जब गीता एनएसए से लौटती है और अपने पिता के अखाड़े में अपनी बहन को दांव पेंच समझा रही होती है। उसे नहीं पता होता है कि फोगट उसे दूर से देख रहे हैं वो तपाक से आते हैं और कहते हैं कि मैं भी तो जरा तुम्हारे दांव देखूं.. 

यहां बाप और बेटी के बीच मल्लयुद्ध होता है। यहां एक कोच अपने ही प्लेयर को गलत साबित करना चाह रहा है, जिसे उसने बड़ी लगन से तराशा है, उसे इस बात का दुख है कि कुछ महीने दूसरे से दांव पेंच सीखने वाली शिष्या स्वयं को उसके सामने बेहतर कह रही है और उसके दांव को कमजोर बता रही है। यहां आमिर का कैरेक्टर एक कोच के रूप में अपनी श्रेष्ठता के लिए लड़ता है, लेकिन गीता से पटखनी खाने के बाद जमीन से कोच के साथ एक हारा हुआ बाप भी उठता है। उसके अहं को चोट पहुंचती है और अपनी बेटी के साथ उसकी बातचीत बंद हो जाती है। मेरे मन में तमतमाई गीता का चेहरा टंगा हुआ है, जब पिता द्वारा पटके जाने के बाद वो कहती है कि मैं तैयार नहीं थी पापा.. 

ये दृश्य दंगल की थाती है.. मौलिक है। इस दृश्य में दोनों अभिनेता अपने चरम पर हैं और नीतेश तिवारी बधाई के पात्र हैं जो उन्होंने आमिर और शेख से सफलता पूर्वक उनका बेस्ट निकलवाते हैं। बॉलीवुड में अब तक हम बाप और बेटे को लड़ते झगड़ते देखते आए हैं, लेकिन दंगल में पहली बार बाप और बेटी के बीच मल्लयुद्ध देखने को मिलता है। ऐसा पहले किसी फिल्म में हुआ हो, मुझे याद नहीं आता। ये दृश्य इस फिल्म का प्राण है.. बाकी सब अदाकारी है जिसे कलाकारों ने शानदार तरीके से निभाया है। 

विक्षोभ से भरी गीता जब एनएसए लौटने लगती है, तो छत पर एक बाप के साथ कोच भी खड़ा होता है, जो उम्र की ढलान पर अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में हार चुका होता है। इसमें कोई शक नहीं कि फोगट अपनी बेटी की क्षमताओं को ज्यादा समझ रहे होते हैं, लेकिन हॉस्टल और राज्य समर्थित सुविधाओं के आगे मजबूर होते हैं। सवाल है कि अगर फोगट एनएसए के कोच होते, तो क्या गीता को शुरुआत में लगातार मुकाबले हारने पड़ते। मुझे लगता है ऐसा नहीं होता.. फोगट की दुविधा यही होती है कि उनकी बेटी जिस तरीके से खेल और लड़ रही है वो सही नहीं है। उन्हें लगता है कि वो जो जानते हैं वो सही और सटीक है। एक बाप हमेशा चाहता है कि उसके बेटे/बेटी हर चीज को परफेक्ट तरीके से करें। 

फिल्म यह भी बताती है कि सदियों पहले बने किलो के गुंबद पर भले ही काई जम गई हो.. लेकिन उनकी मजबूती कम नहीं है। उनका आधार गलत नहीं है। हमें ये सीखने की जरूरत है कि पिता की सलाह हमेशा गलत नहीं होती है। गोल्ड की लड़ाई के फाइनल मुकाबले के आखिरी राउंड में गीता वहीं दांव चलती है, जो पिता ने सिखाया होता है.. 5 प्वाइंट वाला दांव.. जिसे कर पाना हमेशा संभव नहीं होता.. लेकिन ये एक पिता ही सिखा सकते हैं। 

कुछ लोग इस दंगल में नारीवाद ढूंढ़ने लगे हैं, लेकिन ये नारीवाद है क्या? आर्थिक स्वतंत्रता के बिना औरत के लिए कोई स्वतंत्रता संपूर्ण नहीं है इस पूंजीवादी काल में.. फोगट अपनी बेटियों से जो चाहते हैं उसका एक सिरा आर्थिक स्वतंत्रता की ओर जाता है। फोगट की कोशिशें और सपना ही उनकी बेटियों को अपने पैरों पर खड़ा करता है और जमाने के सामने सशक्त किरदार के रूप में उभारता है। ये फोगट के अनुशासन का परिणाम है, जो जानते हैं कि वो जिस रास्ते पर बेटियों को लेकर जा रहे हैं उसमें कितनी मुश्किलें है, तो उनके भीतर का बाप रात में अपनी बच्चियों के पैर दबाता है अपने प्यार को जाहिर करता है। ये पिता ही कर सकते हैं। जो जमाने की परवाह किए बिना परंपराओं को पटखनी दें, बेटियों को अखाड़े में उतारे और खापलैंड की नजरों में पाप करें। 

ये जिस दौर की कहानी है उस वक्त में पिता वटवृक्ष होते हैं, जिनकी छांव को छोड़कर जाना मुश्किल होता है। छोटी उम्र में उनका आदेश ही सर्वोपरि होता है, हमें नहीं पता होता है कि हमारा अधिकार क्या है.. वाद क्या है? गीता जब हॉस्टल जाती है, तो उसे लगता है कि पिता से बड़े पहलवान और जानकार दुनिया में हैं। वो बहुत लोगों को जानने लगती है, लेकिन गीता के पिता अपनी बेटी को जानते हैं.. अपने फन को जानते हैं जो उनकी बेटियों के लिए श्रेष्ठ साबित होता है। 

कितने बिम्ब है फिल्म में .. जो छूट रहे हैं। उन पर फिर कभी लिखूंगा... लेकिन फोन पर दो जोड़ी आंखों को सिसकता देखकर तीसरे की आंख में पानी खुद ब खुद आ जाता है। ये नीतेश तिवारी की जीत है। आमिर (फोगट) का अपनी बेटी को चैलेंज करना.. मस्तिष्क में अटक गया है। 

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