Vande Bharat Express : A Journey to Varanasi

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ट्रेन की जिस बोगी में बैठा हूँ, उसमें 32 इंच की चार स्क्रीन लगी हैं। हर स्क्रीन पर बार-बार नरेंद्र मोदी का चित्र उभरता है और वो  यात्राओं में दिखाई देते हैं। लाल किले पर दिखाई देते हैं। भाषण देते दिखाई पड़ते हैं। रेलवे परियोजनाओं की जानकारी देती  स्लाइड्स को देखकर बहुत सारे सहयात्री उत्साही नजर आते हैं। मेरी बगलवाली सीट पर बैठा आदमी (जिसे कानपुर जाना है) कहता है कि कुछ भी कहिये 'मोदी जी के पास कुछ कर गुजरने का जुनून तो है'. सुबह का समय है सबको नींद आ रही है, मैं भी सोने की कोशिश करता हूँ. 1800 रुपये वाले चेयरकार में साढ़े 6 बजे के समय दो बिस्किट और कॉफी मिली थी और ये कॉफी इतनी थी कि आप नींद को कुछ देर के लिए झटक सके.

इतने में पीछे वाली बोगी से एक नौजवान हैंड ट्राइपॉड पर मोबाइल के जरिये वीडियो शूट करता दिखाई देता है. ट्रेन में स्पीकर लगा है और नियत समय पर घोषणाएं होती है. पहले कुछ सेकेंड के लिए तेज इंस्ट्रुमेंटल म्यूजिक बजता है और फिर एक थकी हुई आवाज, जिस पर उत्साहित दिखने का बोझ है, यात्रियों का स्वागत करती है. सुबह के समय हुई घोषणाओं में अनाउंसर वन्दे भारत बोलता है, लेकिन 12 बजे के बाद ट्रेन इलाहाबाद पहुँचती है, वो घोषणा करता है, 'वन्दे मातरम ट्रेन में यात्रा कर रहे यात्रियों का स्वागत है. वो दो बार वन्दे मातरम बोलता है.' अनाउंसमेंट पूरा हो जाता है. कुछ लोग अनाउंसर की गलती अपनी सीटों पर बैठे-बैठे सुधारते हैं. वन्दे भारत है वन्दे मातरम नहीं.

ट्रेन की बनावट ऐसी है कि शीशों से बाहर की दुनियानवी हकीकतों को ढक दिया जाए तो आपको एहसास नहीं होगा कि आप मेट्रो में यात्रा कर रहे हैं या ट्रेन में. ट्रेन की बोगियों में एसी है, सीसीटीवी लगा है, लम्बी चौड़ी खिड़कियां है, जिन पर ट्रेन चलने के शुरुआती दिनों पर पत्थर फेंके गए हैं, लेकिन उनके निशान ढूंढ़ने की जहमत मैंने नहीं उठाई. हर सीट के नीचे चार्जर पॉइंट है और पूरी बोगी फाइबर से बनी है. सामान रखने के रैक और बैठने की कुर्सियों के अलावा और ज्यादा कुछ नहीं दिखता. उन इंजीनियरों को दाद जिन्होंने सुविधाओं को करीने से समेटा है। दो कुर्सियों के बीच जगह इतनी है कि आप पाँव फैला सकते हैं, लेकिन पीठ सीधी रहेगी. कह सकते हैं कि आप चैन से सो नहीं सकते, क्योंकि कुर्सी पर पीठ सीधी करके कौन सोता है? हर कुर्सी के पीछे लेफ्ट में पानी का बोतल रखने की व्यवस्था है, मतलब आपका बोतल आपके सामने पैरों के पास रहेगा. शौचालय में बायो वैक्यूम सिस्टम है, जो प्रेशर पर काम करता है. लेकिन जिन्हें अत्याधुनिक टॉयलेट्स की जानकारी नहीं है, क्षण भर के लिए उनकी स्थिति सोचनीय हो सकती है, लेकिन फ्लश दबाते ही चीजें साफ हो जाती है.

इस ट्रेन में पैंट्री कार नहीं है. खाना बाहर से आता है. जैसे दिल्ली से चाय और नाश्ता मिला तो इलाहाबाद में खाने के पैकेट अपलोड हुए. आठ बजे के आसपास नाश्ता मिला था, जिसमें दो आलू के कटलेट थे और एक ब्रेड पकौड़ा की तरह था. दो फ्लेवर्ड ब्रेड थे और उसके साथ जूस और चाय-कॉफी का विकल्प. नाश्ता मिला तो एकदम ठंडा था. लोग शिकायत करने लगे. सामने की सीट पर बैठे एक अंकल ने मैनेजर को बुलाया तो उसने माफी मांगी और अपनी मजबूरी बताई. उसका कहना था कि चीजें गरम नहीं कर पा रहे हम लोग क्योंकि खाना बाहर से आ रहा है. लोगों ने ताकीद किया कि लंच ठंडा नहीं होना चाहिए.
लंच में एक तंदूरी रोटी, एक कप चावल, दही, गुलाब जामुन, दाल, सब्जी, चिकन/पनीर के साथ अचार भी मिला. खाना नॉर्मल था और स्वाद भी नॉर्मल. हालांकि परोसा ठीक से गया, तो मैं थोड़ी नरमी बरत रहा हूँ.

बनारस अब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर है, इलाहाबाद स्टेशन पर अर्धसैनिक बलों के कुछ जवान जंक्शन से पहले अपनी गाड़ियों के साथ खड़े दिखाई दिए. उनके हाथों में मोबाइल था. कुछ फोटो खींच रहे थे, कुछ वीडियो बना रहे थे. ट्रेन जब रफ्तार में दौड़ती है, तो आम ट्रेन के मुकाबले शोर कम होता है, लेकिन पटरियां बिदकती है तो ट्रेन खूब हिचकोले खाती है. इलाहाबाद के आगे ऐसा खूब होता है और ये बताता है कि बाबा आदम के जमाने की पटरियां बहुत ज्यादा स्पीड नहीं झेल सकतीं। ट्रेन बहुत हल्की है, राजधानी और अन्य ट्रेनों के मुकाबले स्मार्ट लगती है. बोगियों में एसी होने की वजह से सफर का बोझ पता नहीं चलता.

दोपहर के 1 बजकर 17 मिनट हो रहे हैं और मैं स्क्रीन पर देख रहा हूँ कि ट्रेन की गति इस समय 75 किलोमीटर प्रति घण्टे है. सफर के शुरू से ही ट्रेन की गति में उतार चढ़ाव रहा है. बनारस अब 100 किलोमीटर से कम की दूरी पर है और पूर्वांचल के गेहूं और अरहर वाले खेत चितकबरे नजर आ रहे हैं. किन्हीं - किन्हीं खेतों में गेहूं सुनहरे हो गए हैं तो खपरैल वाले मिट्टी के मकान आर्थिक असमानता के पिंड नजर आते हैं.

पटरियां एक बार फिर बिदकती है और ट्रेन हिचकोले खाती है तो मैं खुद को सम्भालता हूं। मेरी नजरें फिर उन्हीं 32 इंच चौड़ी स्क्रीन्स पर टिक जाती हैं, जिस पर 56 इंच छाती की शेखी बघारने वाले नरेंद्र दामोदर दास मोदी साफ बांधे नजर आते हैं. मैं अपने पीछे देखता हूँ. पीछे की दो स्क्रिन्स पर प्रधानसेवक है... तेज कदमों से चलते दिखाई दे रहे हैं. ट्रेन रफ्तार में है, लेकिन मैं खुद को सम्भालता हूं. आसपास देखता हूँ। पाता हूँ कि ये ट्रेन भी चुनाव प्रचार में है, जिसकी स्पीड अब 99 किलोमीटर प्रति घण्टे हो गयी है.

पूर्वांचल में धूप अब तीखी होने लगी. रेल पटरियों के किनारे बने मकान पर मिट्टी का लेप है और चमक सूरज की तीव्रता को दर्शा रही है. मैं गिन रहा हूँ कि दिल्ली से 6 बजे चली ट्रेन अगर मुझे 2 बजे तक बनारस पहुँचा देती है, तो बनारस से ग़ाज़ीपुर अपने घर पहुंचने में मुझे कितने घण्टे लगेंगे. पेंटागन टैंक तोड़ने वाले वीर अब्दुल हमीद के नाम पर बने पुल में फिर दरार आ गयी है और 2014 के चुनावों के बाद गंगा पर नया पुल बनाने का नरेंद्र मोदी का वादा 5 साल बाद भी पूरा नहीं हुआ है. कार्य प्रगति पर है, आम चुनाव करीब है और जिस मां गंगा ने मोदी को बुलाया था, उसके कछारों में पानी कम होने लगा है.

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्‍छा लिखा है। लेकिन थोड़ा आलोचनात्‍मक हो गया है। अच्‍छी बात है। लेकिन ट्रेन का नाम वन्दे मातरम ट्रेन है या वंदे भारत? लेख में दोनों नाम का यूज है।

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  2. गंगा पर नया पुल बनाने का नरेंद्र मोदी का वादा 5 साल बाद भी पूरा नहीं हुआ है।

    सरकार की चालाकियां आपने उजागर की हैं। यात्रा वृत्तांत पढ़कर अच्छा लगा। शानदार लिखा है।

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