और वो बच्चा ......
१२ अगस्त का दिन,कक्षाये ख़त्म हो चुकी थी....शाम के लगभग सात बजने वाले थे, मै और मेरा दोस्त अमित कैम्पस से निकलकर पैदल ही बेर सराय पहुंचे..रास्ते में ही हम कुछ खाने के बारे में बात कर रहे थे..
सोचा था हमने क़ि बेर सराय पहुंचकर कुछ खाया जायेगा ..बेर सराय पहुँचने के बाद हम दोनों में मोमोज खाने पर सहमती बनी...और फिर हम दोनों मोमोज स्टाल पर पहुंचे.....मोमोज वाले से हमने हाफ प्लेट मोमोज देने को कहा ,हाफ प्लेट लेने के बाद ज्यो हीं,हमने एक टुकड़ा मुंह में रखा ...एक बच्चा दौड़ता हुआ आया और अपने हाथ उसने हमारी तरफ बढ़ा दिए ..इस उम्मीद में क़ि कुछ मिल जायेगा लेकिन ...हम दोनों ने उसकी तरफ ना तो देखा और ना उसे कुछ दे सके और ना ही कुछ कह सके, क्यों क़ि लालच ने हमे भी आ घेरा था ..और हम दो लोंगो के बीच सिर्फ छं टुकड़े ही थे.. लेकिन कुछ सेकंडों बाद वो बच्चा फिर दौड़ता हुआ आया और हाथ फैलाके के खड़ा हो गया ..इस बार हम उसकी तरफ देख ही रहे थे क़ि स्टाल वाले ने उसे दौड़ा लिया .. अबे साले..
आखिरी दो पीस ही बचे थे और वो बच्चा फिर इस उम्मीद में आया क़ि शायद कुछ मिल जायेगा ..
शुरू से ही मै खुद को काबू में किये था...देने को दिल कर भी रहा था, फिर भी दे नहीं पा रहा था क्यों क़ि प्लेट में छं पीस और खुद के पेट की आग हाथों को उठने नहीं दे रहे थे ... लेकिन इस बार ना मैंने आंव देखा ना ताव और आखिरी पीस में से आधा टुकड़ा ही सही उस बच्चे क़ि तरफ बढ़ा दिया ,इस उम्मीद में क़ि..उस बच्चे क़ि बददुआये हमें ना लगे.. और फिर हम वहां से लौट आये......
लेकिन पूरे रास्ते मै यही सोचता रहा क़ि दिया भी तो ये सोचकर क़ि उसकी बददुआए मुझे ना लगे .... क्या हालत है हमारे देश में इन बच्चों की.. कैसी मनोदशा होती होगी, उसकी जब लोगों को खाते देखता होगा..उन बड़े बाप के बेटों को हर बार नई चीज़े खाते देखकर, क्या वो हर बार जाता होगा.. उनके पास... क्या वे लोग उसे एक टुकड़ा देते होगे या स्टाल वाले उसे पीट कर भगा देते होगे .....
धन्यवाद ...........
सोचा था हमने क़ि बेर सराय पहुंचकर कुछ खाया जायेगा ..बेर सराय पहुँचने के बाद हम दोनों में मोमोज खाने पर सहमती बनी...और फिर हम दोनों मोमोज स्टाल पर पहुंचे.....मोमोज वाले से हमने हाफ प्लेट मोमोज देने को कहा ,हाफ प्लेट लेने के बाद ज्यो हीं,हमने एक टुकड़ा मुंह में रखा ...एक बच्चा दौड़ता हुआ आया और अपने हाथ उसने हमारी तरफ बढ़ा दिए ..इस उम्मीद में क़ि कुछ मिल जायेगा लेकिन ...हम दोनों ने उसकी तरफ ना तो देखा और ना उसे कुछ दे सके और ना ही कुछ कह सके, क्यों क़ि लालच ने हमे भी आ घेरा था ..और हम दो लोंगो के बीच सिर्फ छं टुकड़े ही थे.. लेकिन कुछ सेकंडों बाद वो बच्चा फिर दौड़ता हुआ आया और हाथ फैलाके के खड़ा हो गया ..इस बार हम उसकी तरफ देख ही रहे थे क़ि स्टाल वाले ने उसे दौड़ा लिया .. अबे साले..
आखिरी दो पीस ही बचे थे और वो बच्चा फिर इस उम्मीद में आया क़ि शायद कुछ मिल जायेगा ..
शुरू से ही मै खुद को काबू में किये था...देने को दिल कर भी रहा था, फिर भी दे नहीं पा रहा था क्यों क़ि प्लेट में छं पीस और खुद के पेट की आग हाथों को उठने नहीं दे रहे थे ... लेकिन इस बार ना मैंने आंव देखा ना ताव और आखिरी पीस में से आधा टुकड़ा ही सही उस बच्चे क़ि तरफ बढ़ा दिया ,इस उम्मीद में क़ि..उस बच्चे क़ि बददुआये हमें ना लगे.. और फिर हम वहां से लौट आये......
लेकिन पूरे रास्ते मै यही सोचता रहा क़ि दिया भी तो ये सोचकर क़ि उसकी बददुआए मुझे ना लगे .... क्या हालत है हमारे देश में इन बच्चों की.. कैसी मनोदशा होती होगी, उसकी जब लोगों को खाते देखता होगा..उन बड़े बाप के बेटों को हर बार नई चीज़े खाते देखकर, क्या वो हर बार जाता होगा.. उनके पास... क्या वे लोग उसे एक टुकड़ा देते होगे या स्टाल वाले उसे पीट कर भगा देते होगे .....
धन्यवाद ...........
भाई यह कहानी पूरी दिल्ली की है. एक बार मैंने सत्य निकेतन बस स्टॉप पर 'वन रुपी' मांगती एक बच्ची से काफी देर बात की. पता चला कि उसका चाचा रोज उसे यहाँ छोड़ जाता है. शाम तक उसे एक निश्चित न्यूनतम कमाई चाचा को देनी होती है. भीख ठीक-ठाक मिल जाए तो आस-पास की दुकान से कुछ लेकर खा लेती थी. जिस दिन भीख सही नहीं मिलती, उस दिन पेट भरने के लिए दुकानों पर लोगों से खाना माँगना पड़ता था.
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