तुम्हारे उरोजों में मुंह दबाए सुबक रहा हूँ मैं
हर सुबह
तुमसे आलिंगन होने का ज्वारमुझे विक्षिप्त कर देता है
वासना के ज्वार में कांपता शरीर
जंघाएँ दौड़ती हैं तुम पर वार करने को
काठ हुआ शरीर चिपक जाता है बिस्तर से
दीवार पर बैठी तुम
हजार अंगड़ाईयाँ लेती हो
फिर दीवार से उतरकर
मेरे सामने खड़ी हो जाती हो
निर्झर शाख की तरह
ज्वार में विक्षिप्त मैं
डूब जाता हूँ
पसीने के दरिया में
तुम्हारे उरोजों में
मुंह दबाए
सुबक रहा हूँ मैं
तुम्हें पाने के बुखार में
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें