TRAVELOGUE : सहजता और अपनेपन का शहर कोलकाता
गीताजंलि एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म पर आकर खड़ी हुई और हम तीन
उतर पड़े। गर्मी से बेहाल तीनों लोगों ने पानी पिया और बोतल भरा.. तब तक दूसरे
प्लेटफॉर्म पर लोकल ट्रेन आ गई। लोकल ट्रेन की रफ्तार सामान्य से ज्यादा थी। बाकी
के दोनों दोस्तों ने कहा कि ट्रेन यहां नहीं रूकेगी आगे प्लेटफॉर्म पर रूकेगी।
चूंकि गीतांजलि एक्सप्रेस में हमारी बोगी पीछे थी, इसलिए हम मेन प्लेटफॉर्म से
पीछे थे। लोकल ट्रेन तेजी से चली जा रही थी, मैंने कहा छोड़ेगे नहीं, इसी से
चलेंगे और तीनों ने दौड़ लगा दी। लोकल ट्रेन के पीछे-पीछे दौड़ते रहे। ट्रेन महज
कुछ सेकेंड रूकी और चल दी। हम लोगों ने करीब सात से आठ सौ मीटर की दौड़ लगाई और
ट्रेन के रफ्तार पकड़ने से कुछ सेकेंड पहले घुस गए। मैं महिला बोगी में हांफते हुए
घुसा और बाकी के दोस्त अगली बोगी में। बहरहाल, लोकल चल पड़ी और कुछ समय बाद हम
हावड़ा के भीड़ भरे एक व्यस्त प्लेटफॉर्म पर थे।
जोरों की भूख लगी थी हमें हालांकि जेब इजाजत नहीं दे रही थी
रेलवे स्टेशन पर कुछ खरीद खाया जाए, लेकिन गर्मी के मारे हम लोग एसी हवा की तलाश
आईआरसीटीसी के हॉलनुमा किचन में घुस गए। वहां सब कुछ महंगा था, सौ रुपये की नीचे
तो कुछ भी नहीं था। हां, एक लस्सी थी और हमने तीन लोगों के लिए ऑर्डर किया और फिर
अपना-अपना कप लेकर घुस गए। लस्सी पिए और एसी की हवा खाने के बावजूद भूख शांत नहीं
हो रही थी। हम लोग वहां से निकल कर आगे बढ़े और जन आहार में घुसे। वहां चाऊमीन
आर्डर किया गया। वजह ये कि चाऊमीन मैदे का बना होता है इसलिए पचने में टाइम लेता
है। चाऊमीन खाने के बाद पहले से बने बनाए प्लान के अनुसार हम लोग गंगा किनारे
पहुंचे। प्लान ये था कि गंगा में चलने वाले बोट के जरिए हावड़ा से कोलकाता चला
जाएगा। पांच-पांच रुपए के तीन टिकट लिए गए, हमें यहां लगा कि महंगाई कुछ कम है
यहां। मीडियम साइज के पानी वाले बोट गंगा पार करा रहे थे, ना तो उतने छोटे थे और
ना ही इतने बड़े कि इन्हें विशाल कहा जा सके। गंगा किनारे बैठकर हम लोग मिलेनियम
जाने वाली बोट का इंतजार करने लगे। गंगा का पानी यहां मटमैला से थोड़ा उजला था।
लोगों ने कहा कि इसमें समुद्र का भी पानी मिला हुआ है। इसी पानी के ऊपर हावड़ा
ब्रिज दो छोर के सहारे पसरा हुआ था। लोगों की समूह पैदल, टैक्सी, बस और मोटरसाइकिल
और तमाम साधनों से इस पार से उस पार कर रहा था। हावड़ा ब्रिज को देखकर मन में बहुत
सारी किवदंतियां जीवित हो उठी, सबसे पहले ये हावड़ा ब्रिज फिल्म का ख्याल आया, फिर
ये कि पुल रात के बारह बजे बंद हो जाता था, लोगों ने कहा अब ऐसा नहीं होता। लोगों
ने इसे बनाने वाले कारीगर से जुड़ी किवदंतियां सुनाई। किसी ने कहा कि एक घड़ी है
जो हमेशा चलती रहती है और जब घड़ी बंद होगी यह हावड़ा ब्रिज भी अपनी उम्र को पूरा
कर चुका होगा। हालांकि मुझे इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं हुआ। बोट चल रही थी
कि और हम लोग तस्वीरें लेने में व्यस्त थे, तभी हमारा एक साथी ऋषभ गया और बोट के
चालक से सुर्ती मांग लाया। वो सुर्ती खाता है। कहता है इससे ताजगी रहती है। आप मत
खाइएगा। ये गलत आदत है। हम ऋषभ को नहीं समझा पाए।
कुछ ही मिनटों में हम मिलेनियम पहुंच गए। वहां से कोलकाता
शहर में एंट्री हुई। चौड़ी सड़कें, पुराने जमाने के बिल्डिंग, अपनी तरह के लोग,
रिक्शे, पीली टैक्सियां जोकि कलकत्ता की पहचान है। इस शहर की हवा का पहला झोंका
था। मुझे आभास हुआ कि दिल्ली की तरह यह शहर बोझिल नहीं है.. गले से लगा लिया इस
शहर। मन प्रसन्न था।
हमें बड़ा बाजार जाना था। सॉफ् ड्रिंक बनाने वाली एक
फैक्ट्री के मालिक से मिलना था और मशीन देखना था। हम पैदल चलने लगे, कोई भागमभाग
नहीं थी, लोग अपना का कर रहे थे और वे किसी जल्दी में नहीं थे। रिलैक्स थे लेकिन
मशरूफ थे। हम पैदल चल रहे थे। बड़ा बाजर में चलते रहे। सामने से एक जुलूस चला आ
रहा था, ढोल और ड्रम बज रहे थे। लोग खड़े होकर देख रहे थे। हरे रंग के साफे और
सफेद कुर्ते पाजामे में ड्रम वाले ताल मिला रहे थे.. धिन धिनक धिन.. डिम डिमा
डिम.. एक सज्जन होठों पर मुस्कुराहट लिए खड़े थे, लोग दस के, बीस के नोटों से
परीछते और बैंड वालों को पकड़ा देते.. हम आगे बढ़ लिए।
आगे चलकर एक पुर्तगाली चर्च दिखा, जो बड़ा था आकार में और
उसी बनावट अच्छी थी। मुझे कोलकाता के सबसे बड़े चर्च की याद आई। इसी चर्च पर
क्रिसमस के दिन रवीश कुमार ने एक रिपोर्ट की थी। हमने एक चचाजी से पूछताछ की। वो
नींबू पानी बेच रहे थे। उन्होंने कहा, पियोगे। मैंने पूछा- पानी कैसा है। उन्होंने
थोड़ा नाराज होते हुए कहा – भइया हम भी इंसान है। गंदा पानी थोड़े पिलाएंगे। फिर
हम लोगों ने नींबू पानी पिया। चचा जी बोलने लगे कि लोग प्लास्टिक वाली गिलास को
जूठी बताते हैं जैसे आप पानी कि शिकायत कर रहे थे। मैंने कहा, चचाजी मैंने पानी के
बारे में पूछा गिलास के बारे में नहीं। आप रहने दीजिए। हम लोग बढ़े और एक अंकल से
गिरीश पार्क के बारे में पूछताछ की। उन्होंने कहा यहां से फलां बस जाएगी आप पकड़
लो। तभी एक बस आई और उन्होंने कहा यह जाएगी। हम लोग चढ़ लिए।
बस का कंडक्टर बांग्ला बोल रहा था। हमें कुछ-कुछ क्या बहुत
कुछ समझ में आ रहा था। हालांकि उसका उच्चारण खांटी बांग्ला था और वो अपनी रफ्तार
से बोल रहा था। उसने किराया मांग चौबीस टका, हमने एक दूसरे की तरफ देखा और उसके
सामने दस का नोट बढ़ाया। एक अंकल हम लोगों पर निगाहें गड़ाए हुए थे। उन्होंने कहा
कि आप लोगों का किराया चौबीस रुपया हुआ। हमने चौबीस रुपये दिए और गिरीश पार्क उतर गए।
गिरीश पार्क उतरकर सॉफ्ट ड्रिंक वाले को फोन मिलाया। उसने डॉ.
लाल पैथ लैब वाले के क्लिनिक पर वेट करने को कहा। कुछ देर बाद उससे बातचीत हुई और
फिर मशीन देखने का कार्यक्रम बना। उसने कहा मशीन दमदम में है। सब लोग मशीन देखने
के लिए चल दी। क्लिनिक से बाहर आकर उसने प्रस्ताव रखा कि बस या टैक्सी से जाने में
ज्यादा टाइम लगेगा इसलिए मेट्रो से चलते हैं। उसने छूटते ही पूछा- कोलकाता मेट्रो
में चढ़े हैं। नहीं, मैंने कहा – हालांकि मैं दिल्ली मेट्रो का हमसफर रहा हूं डेली
बेसिस पर। फिर महाशय ने कहा कि चलिए आपको फिर कोलकाता मेट्रो का सफर कराते हैं।
सबकुछ लगभग दिल्ली मेट्रो के जैसा था। बनावट और सुविधा,
लेकिन सफाई दिल्ली मेट्रो के जैसी नहीं थी। दीवारों के पान की पीक के दाग थे, भीड़
उतनी नहीं थी, जबकि शाम का समय था। हालांकि लोग अच्छी संख्या में दिख रहे थे।
कोलकाता मेट्रो को इंडियन रेलवे ने बनाया है। डीएमआरसी की तरह इसका कोई अलग से
विभाग नहीं है। कोलकाता मेट्रो भारतीय रेलवे की लोकल ट्रेन की तरह। इसमें एसी जैसी
कोई व्यवस्था नहीं थी, हालांकि कूलर लगे हुए थे। फिर भी बोगियों में गर्मी और उमस
थी। ट्रेन चलते हुए हल्ला बहुत कर रही थी। अनाउंस की सुविधा बेहतर नहीं थी,
किसी-किसी ट्रेन में अनाउंस की सुविधा भी नहीं थी। ट्रेन में लगे मैप से ही आपको
जानकारी लेनी थी। तीन स्टेशन बाद हमारा स्टेशन दमदम था।
- बाकी की कहानी अगले भाग में।
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