एक दिन दिल्ली को ठोकर मार लौट आऊंगा मेरे जहां
Courtesy_Nandlal Sharma |
और जब लौटने लगता हूं गांव छोड़
तो वापस आने का मन नहीं करता
दिल चाहता है रूक जाऊं
ना जाऊं दिल्ली की ओर
इस जमीं और आसमां को छोड़कर
कुछ कर लूं
इधर ही
अगर पैसा कमाना ही है तो...
मन भारी हो जाता है
टूटने लगता है
ट्रेन जितनी तेज चलती है
मन उतनी तेजी से रोने को करता है
लेकिन रो नहीं पाता
ना जाने कितने छूट जाते है...
हरे भरे खेत और बारिशों के मौसम
दमकता सूरज और बाहें फैलाएं चांद
भरे पूरे खेत और ओस की बूंदे
लेकिन टूटे हुए भारी मन से
मैं अपनी जमीं छोड़
ट्रेन के साथ डगराता चला आता हूं।
लौटने के लिए दबाव डालता है दिल
जिद पर अड़ा रहता है
कि मैं लौट चलूं
अपने जहां में
जहां रातें हैं
भोर हैं और दोपहर भी
जहां सुनहरी बूंदों में भीगी हुई रोशनी
हर सुबह आवाज देती है
मैं जानता हूं
एक दिन सब
छोड़ छाड़ कर लौट आऊंगा
उस जहां में
जहां धरती मेरी है
आसमां मेरा है
मेरे अपने हैं
और तब मैं घूमूंगा
हरियाली चादर ओढ़े
उन खेतों में हर रोज।
बिना नागा
बालियों को सहलाऊंगा
और पेड़ों पर चढ़
हवाओं संग अठखेलियां करूंगा
मैं ठोकर मारूंगा
इस दिल्ली को
एक दिन
बड़ी जोर से
और लौट जाऊंगा
और लौट जाऊंगा
गंगा की गोद में
कंक्रीट के जंगलों को छोड़
बांस, धान और नीम के जंगल में
हवा और पानी के लिए
तसल्ली के लिए
जहां सुकून है
मेरी अंतरात्मा के लिए
मैं लौट जाऊंगा
07 Sep 2014
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