कुर्बानी मांग रहा है सीसैट आंदोलन
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हुक्मरानों ने जब इस देश में भाषा विज्ञान की
जगह तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना शुरू किया, तो इसका एक बड़ा प्रभाव हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी आया. छात्रों को
बताया गया कि गणित, अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ो. उसी से रोजगार
मिलेगा और रोटी भी. फिर क्या था हर कोई अपने बच्चे को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने
लगा. उदारीकरण ने एमबीए और सीए जैसे कोर्सों को जन्म दिया. इनकी तैयारी के लिए
तमाम संस्थान खुलने लगे. लोग कोर्स करने के बाद सात समंदर ब्रैंड इंडिया के
एंबेसडर होने लगे और लाखों का सैलरी पैकेज उनकी जब में था. ये नए युवा भारत की
पहचान थी.
राजधानी की जिन सड़कों पर छात्र लाठियां खा
रहे हैं. वे उन प्रदेशों से आते हैं जहां अब भी प्रशासनिक नौकरियों को तरजीह दी
जाती है. लोग भाषा विज्ञान की पढ़ाई भी पूरे उत्साह से करते हैं. तमाम परेशानियों
के बावजूद संस्कृत पढ़ते हैं और जब एक प्रदेश के राज्यपाल दीक्षांत समारोह में
उनकी पढ़ाई और संस्कृत पर सवाल उठाते हैं, तो छात्र राज्यपाल पर चप्पल उछालने में देरी नहीं करते. वे जानते हैं कि
चंद बरसों बाद संस्कृत और ऊर्दू की सांसें थम जाएगी. लेकिन हर साल इन प्रदेशों में
लाखों युवा हाईस्कूल और इंटरमीडिएट स्तर पर संस्कृत और सामाजिक विज्ञान जैसे
विषयों में अपना सिर खपाते हैं. हिंदी माध्यम में पढ़ते हैं और सपने संजोते हैं.
सबसे बड़ा सपना आईएएस बनने का होता है, डॉक्टर और इंजीनियर
बनना प्राथमिकता में तो होती है. लेकिन आईएएस का रूतबा उन्हें खूब लुभाता है.
लालटेन की रोशनी में यूपी, बिहार, राजस्थान सहित
उत्तर भारत में पलने वाले ‘लाल’ हर परीक्षा में अव्वल आने के लिए किताब पर नजरें गड़ाए रतजग्गा करते हैं.
लेकिन उन्हें मालूम नहीं होता कि अंग्रेजीदां मानसिकता से भी लड़ना है, वही उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है. जो अपने लिए समानान्तर व्यवस्था
बना चुकी है और उस व्यवस्था में उनको जगह देने के लिए राजी नहीं है.
यूपी, बिहार सहित तमाम राज्यों में गैर अंग्रेजी बोर्ड और स्कूल के छात्रों के
मुकाबले केंद्र के बोर्ड में लाखों लड़के पढ़ते हैं जिन्हें अपने स्कूलों में
हिंदी या अपनी बोली बोलने पर जुर्माना देना पड़ता है. अंग्रेजी माध्यम के तमाम
स्कूलों में लड़कों को हिंदी बोलने की मनाही होती है. बोलने पर पिटाई होती है और
जुर्माना देना होता है. ये बच्चे अपनी शुरुआती पढ़ाई किसी प्राइमरी स्कूल में नहीं
करते, ये लिटिल स्टार गॉर्डेन टाइप के स्कूल में पढ़ते है और
इनके मां बाप इनको आईआईटी और एमबीए करवाने के सपने देखते हैं. सीबीएसई, आईएससीई बोर्ड से जब ये 12वीं कर लेते हैं तो देश भर में कुकुरमुत्ते की
तरह उगे कोचिंग संस्थानों में से किसी एक में इनका रजिट्रेशन करा दिया जाता है,
एंट्रेस एग्जाम की तैयारी के लिए.
कैट, मैट, आईआईटी, सीबीएसई की तमाम
परीक्षाओं सहित सीसैट का पैटर्न देख लीजिए और उन बच्चों की संख्या के लिए गूगल कर
लीजिए जो इनकी तैयारी करते हैं और हां, इन परीक्षाओं की
तैयारी के लिए क्वालिफिकेशन भी देख लीजिएगा. जब आपको ये पता चल जाए तो यूपी बिहार
के विश्वविद्यालयों से हर साल निकलने वाले स्नातक और स्नातकोत्तर के छात्रों की
संख्या भी जान लीजिएगा. तब आपको पता चल जाएगा कि भाषा के नाम पर जो छात्र लड़ाई
लड़ रहे हैं उनका आंदोलन बड़े पैमाने पर पसर क्यों नहीं रहा है. मुखर्जीनगर के
आसपास क्यों सिमटा है. दिल्ली के अलावा और कहीं प्रदर्शन क्यों नहीं हो रहे हैं.
क्य़ोंकि कहतरीनुमा अंग्रेजी व्यवस्था में बाजार का जोरन डालकर लोगों को दही की तरह
जमा दिया गया है. देश के 29 राज्यों में अंग्रेजों के
भारतीय संस्करण तैयार हो गए हैं. उनका एक ही उद्देश्य है प्रशासनिक व्यवस्था को
अपनी मुट्ठी में भींचे रहना, लिहाजा वे चुन चुन कर गैर
अंग्रेजी भाषी छात्रों और लोगों को ‘10 डाउनिंग स्ट्रीट’ के सहोदर चौराहों पर घसीट-घसीट कर पीट रहे हैं. कंपनीबाग से उन्हें
धकियाकर बाहर कर रहे हैं.
छात्रों के आंदोलन को लेकर जो बहस लोकसभा और
टेलीविजन पर हो रही है उसमें मंत्री से लेकर विशेषज्ञ तक हर कोई ये जिक्र करना
नहीं भूल रहा है कि जो सवाल होते हैं, वो दसवीं स्तर के होते हैं. लेकिन बात ये नहीं है कि आंदोलनकारी छात्रों
को दसवीं स्तर के सवाल नहीं आते. दरअसल, बात पढ़ाई की है जो
शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी है. आंदोलनकारी छात्रों ने 4-5 साल आईआईटी और एमबीए की
तैयारी में रीजनिंग और मैथ के सवालों को क्विक तरीके से हल करने के मंत्र नहीं जपे
हैं. उन्होंने समाजशास्त्र, भूगोल, इतिहास
और दर्शन पढ़ा है. वे कोचिंग प्रोडक्ट छात्रों से ज्यादा स्कोर कैसे कर पाएंगे. स्पष्ट
है कि सीसैट से फायदा किसको मिल रहा है.
दूसरी ओर मंगल ग्रह पर यान भेजने वाले देश के
कर्ता धर्ताओं को जो यूपीएसी चलाते हैं. चूल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए. जो इस
देश में श्रेष्ठ अनुवादक नहीं ढूढ़ पा रहे हैं और मशीन से अनुवाद करा रहे हैं.
क्या इस देश में अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करने वाले कुशल लोगों की कमी है?. आवश्यकता इस बात की है कि इस देश के
प्रधानमंत्री प्रश्नपत्रों के सटीक अनुवाद के लिए यूपीएससी को ठोंक बजाकर ठीक
करें.
सवाल ये भी है कि केंद्र सरकार क्यों नहीं
सीबीएसई को अंग्रेजी से मुक्ति दिलाती है. क्यों नहीं वह सीबीएसई के जरिए तमिल, बांग्ला, कन्नड़ और
हिंदी में शिक्षा देती है. नहीं, वे तो अंग्रेजी के जरिए इस
देश के लोगों को भाषाई तौर पर गुलाम बनाए रखना चाहते हैं. ताकि चंद गिने चुने लोग
इस देश पर शासन करते रहे.
दक्षिण की राजनीतिक पार्टियों से सवाल है कि
क्या वे दिल्ली की सत्ता पर काबिज नहीं होना चाहती. या बस क्षेत्रीय भूमिकाओं में
ही रहना चाहती हैं. अगर दिल्ली की गद्दी पर बैठना चाहती है तो अपनी भाषा से उत्तर
भारत के लोगों को जोड़ने के लिए क्या कर रही है.
मान लीजिए हिंदुस्तान के सारे प्रदेश एक
स्वतंत्र राष्ट्र होते, तो क्या अंग्रेजी ही उनकी
राष्ट्रभाषा या राजभाषा होती है. या फिर वे अपनी भाषाओं को सम्मान देते और
आधिकारिक कार्यों से लेकर शिक्षा तक के लिए वे अपनी भाषा चुनते. उदाहरण के लिए मान
लीजिए कि अगर तमिलनाडु एक स्वतंत्र राष्ट्र होता, तो क्या वे
अंग्रेजी को प्राथमिकता देते. या फिर तमिल को. अगर वे तमिल को प्राथमिकता देते हैं,
तो फिर मुख्यमंत्री जयललिता का ये कहना कि ‘हम भारत सरकार से अंग्रेजी में वार्तालाप करेंगे,’ इस बयान को किस नजरिए से देखें. क्या ये तमिल भाषा के साथ दोहरा व्यवहार
नहीं है. ये भी कहा जा सकता है वे तमिल प्रेम का नाटक कर रही है. सिर्फ वहीं नहीं
डीएमके के बॉस भी.
क्या जयललिता ने केंद्र पर इस बात का दबाव
बनाय़ा कि वह आधिकारिक कार्यों के लिए तमिल का प्रयोग करें. नहीं उन्होंने दबाव
बनाया भी, तो अंग्रेजी को स्वीकार कर
लिया. उन्हें कम से कम अंग्रेजी में पूछे जाने वाले सवालों के जवाब तमिल में देने
चाहिए थे. ताकि केंद्र की सरकार इस बात के लिए मजबूर हो जाएं कि वह हर विभाग में
एक अनुवादक और दुभाषिया रखे. इस तरह अफसरशाही में ऐसे लोगों की जरूरत होती,
जो तमिल या किसी और भाषा के जानकार होते. ध्यान रहें ये सारी
बातें सभी प्रदेशों और भाषाओं पर लागू होती है. आज किस विभाग में एक तमिल बोलने
वाले की जरूरत है. मुझे लगता है किसी भी ऐसे आदमी की जरूरत नहीं है जो तमिल जानता
हो. हां, अंग्रेजी जानने वालों की जरूरत है. अंग्रेजी जानने
वाले किसी हिंदुस्तानी जबान में अनुवाद करते हैं तो वो कंप्यूटर का सहारा लेते
हैं. क्योंकि तमिल जानने वाले नहीं है. राज्यों की जो शिक्षा व्यवस्था है उसमें
अंग्रेजी में लिखी गई किताबों को पढ़ाया जाने लगा है. जिस अंग्रेजी को भाषा के रूप
में पढ़ाया जाना चाहिए था, उसी अंग्रेजी में हम अपनी भाषाओं
को पढ़ाने लगे हैं.
हम अपने ही बच्चों को कबीर और रसखान के दोहे
अंग्रेजी में पढ़ाने लगे हैं. उनके मायने फिरंगी जबान में समझाने लगे हैं, ये बताता है कि हमारे बच्चे अपनी भाषाओं को
भूल गए हैं. वे उन्हें समझने में असमर्थ हैं. सबसे दुख की बात तो ये हैं कि ये
असमर्थता हमें प्रेरित नहीं कर पाती कि हम अपनी भाषाओं को सीखें. क्या हम जो शिक्षा
हासिल कर रहे हैं उसमें भाषा की प्रधानता है, मैं कहूंगा
नहीं.
एक भाषा है जो हमारी अपनी नहीं है, लेकिन वो हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और
हमारी भाषाओं पर हावी है. हम गणित और विज्ञान पढ़ने लगे हैं, गैर भारतीय भाषा में. और हमारी भाषाएं कहीं दूर पीछे छूट गईं है. ऊर्दू
इसी देश में मरणासन्न हालत में है. क्य़ोंकि हमें भाषाओं की चिंता ही नहीं है. सबको
अंग्रेजीदां होना है.
एक भाषा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचती
है अपने लोगों के साथ, उसके साथ अपना कल्चर भी होता
है. कल्चर की तुलना में भाषा को अपनाने में थोड़ी मुश्किल आती है, क्योंकि उसे सीखने में टाइम लगता है इसलिए हम कल्चर को अपनाने लगते हैं,
फिर धीरे धीरे हम भाषा को अपना लेते हैं. उसके बाद हमें अपना सबकुछ
बुरा लगने लगता है. हम अपना छोड़, गैर संस्कृति और भाषा को
अपना लेते हैं. ये भारतीय मानसिकता है. हमें दूर के ढोल सुहावने लगते हैं अपनी
उंगलियों में लिपटी बांसुरी के बजाय.
अंग्रेज जब इस देश की सत्ता भारतीयों को
सौंपकर जा रहे थे, तो नेहरू जैसे लोगों ने अपना
दबदबा बनाने के लिए अंग्रेजी का सहारा लिया, उन्हें हिंदी या
फिर कोई दूसरी जबान में क्या हर्ज था. हमने सबकुछ अंग्रेजों का अपना लिया, उनकी शिक्षा व्यवस्था, रहन सहन, सामाजिक ढांचा. कॉलोनियां बना ली है हमने, जैसे हम
अंग्रेजों के उपनिवेश थे. फिर यहीं शिक्षा व्यवस्था हमारी मासूम भाषाओं का गला
घोंटती गई. इसी व्यवस्था का परिणाम है कि अपने देश में अंग्रेजी बोलने पर बच्चों
को मार खानी पड़ती है और परिजनों को जुर्माना देना पड़ता है.
इस देश के उच्च न्यायालय में हिंदी जुबान में
बहस करने की मनाही है. आखिर ये कैसा देश है. जहां अंग्रेजी ना बोलने वालों को अछूत
समझा जाता है, उन्हें हीन भावना से देखा
जाता है. 60 बरस पुरानी शिक्षा व्यवस्था ने नए अंग्रेज पैदा कर दिए हैं.
इसी देश के विश्वविद्यालयों में अगर कोई
बच्चा जो अपने गांव से पढ़ने आता है तो उसे मजबूर किया जाता है कि वह अंग्रेजी में
अपना प्रश्नपत्र लिखे, अगर वह अपनी भाषा में लिखता
है तो उसके साथ मॉर्किंग में दोहरा व्यवहार किया जाता है और शर्त में यह भी उल्लेख
रहता है कि अगर आप हिंदी में प्रश्नपत्र लिखेंगे तो आपके नंबर काटे जाएंगे. 2010
की बात होगी, मेरे ही दोस्त ने जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय का पर्चा हिंदी में लिखा था, और उसे प्रवेश
नहीं मिल पाया. जबकि उसने TISS जैसे एक निजी
संस्थान में पर्चा हिंदी में लिखा और उसे प्रवेश मिल गया.
आप किसी भी परीक्षा का पेपर ले लीजिए और उसकी
शर्तें पढ़िए उसमें आपको एक शर्त ऐसी मिलेगी जिसमें लिखा होगा कि किसी गड़बड़ी की
स्थिति में सही उत्तर अंग्रेजी में छपे जवाब ही माने जाएंगे. क्यों? क्योंकि इस देश में रहने वाले लोग
काले अंग्रेज बन गए हैं. उन्हें अपनी भाषा नहीं आती है. वे उसे सही सही नहीं लिख
सकते.
मैं पूछता हूं आपसे देश के बढ़िया कॉलेजों
में से एक सेंट स्टीफेंस में कितने छात्र गैर अंग्रेजी बोर्डों से आए हैं.
ज्यादातर सीबीएसई या फिर आईसीएसई के होते हैं, या फिर सभी. वे पढ़ते हैं और फिर अमेरिका और यूरोप की तऱफ उड़ जाते हैं.
ऐसे कॉलेजों की क्या जरूरत है इस देश में, लेकिन ऐसे कॉलेज
चाहिए क्योंकि एक वर्ग इस देश में पैदा हो गया जिसे सबकुछ अंग्रेजीदां चाहिए.
उनमें अब भारतीयता बची ही नहीं हैं.
सीसैट विवाद तो एक बानगी भर है. इस देश के
शासक वर्ग का रवैया ऐसा ही रहा, तो ये
देश भाषा के नाम पर आगे चलकर बिखर जाएगा. कम से कम मैं तो चाहूंगा ही कि पूर्वांचल
एक स्वतंत्र देश हो और वहां के बच्चों को भोजपुरी में शिक्षा दी जाएं. वे दुनिया
भर का साहित्य पढ़े, लेकिन अपनी भाषा में. दूसरी भाषा सीखें,
लेकिन अपनी भाषा की कुर्बानी देकर नहीं. मुझे लगता है सीसैट के
खिलाफ छात्रों का आंदोलन कुर्बानी मांग रहा है और ये कुर्बानी कौन देगा, ये समय तय करेगा. अभी तो आप मैक्डोनाल्ड जाइए और बर्गर खाइए.
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