दिल्ली गेट तक एक चुप्पी पसरी रही..

दोपहर के दो बज रहे थे..चौराहे पर एक ठेले के साथ कई रिक्शे खड़े थे..मैं उनकी तरफ बढ़ा और एक से पूछा देल्ही गेट चलोगे, चलिए..कितना लोगे.. बीस रुपया..चलो..
बैठिए ना थोड़ा खा लूं..ठीक है..मुझे लगा वो खाना खाएगा...देखा तो हाथों में चाऊमीन का एक भरा पूरा प्लेट लिए तख्ते पर बैठा था.
थोड़ी देर बाद..जब चलने लगा, मैंने पूछा..आज कल इसी पर कट रही है क्या..उसने कहा, क्या करें साहब दस रुपए में तो खाना मिलता नहीं..सौ-पचास रुपए कि थाली आती है..उससे अच्छा है ये..दस रुपए में एक प्लेट भर के देता है..मैं अचानक बोल पड़ा, पेट भरने के लिए खाते हो या भूख मारने के लिए...उसने तिलमिलाई नजरों से देखा..दिल्ली गेट तक एक चुप्पी पसरी रही..
29-07-2013

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