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जून, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैंने लिखा था डायरी में

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'इस दुनिया में जितने भी लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया, वे कभी समझ नहीं पाये कि मैं उन्हें प्यार करता था।  या  यूं कहूं कि मैंने जिनसे भी प्रेम किया उनसे कभी मजाक नहीं किया। अटूट प्रेम की चाहत में, मैं मजाक से भी डरता था' 27.06.2013

मैं अपना आरम्भ कितना पीछे छोड़ आया हूं।

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Courtesy_Google मृत्यु तब तक कोई समस्या नहीं है.. जब तक आपने जीना शुरू नहीं किया है। लेकिन मैं तो अभी ठिठका हूं..ठीक, चलने से पहले..। मैं अकेले जीना नहीं चाहता और मरना भी..इसलिए इंतजार कर रहा हूं उसके आने का..ताकि हम अंगुलियों के पेंच लड़ा सकें.. यूं भी ठिठकना आप की स्मृतियों को ताजा कर देता है। दो पतंगें हवा में पेंचे लड़ा रहीं थी, खिलखिला रही थी और एक दूसरे की नोंकझोंक में मगन थीं..नीचे ढेर सारे लोग चिल्लाते हुए अपने हाथ हवा में लहरा रहे थे.. कौन जानता था उनकी ये खुशी स्वार्थवश थी। हवा का तेज झोंका एक पतंग को खींचता हुई दूसरी से अलग कर गया। जिसे छतों पर खड़े लोगों ने लूट लिया.. स्मृतियां आपके पांवों में उलझ जाती है..लेकिन नए बीजों को पनपने के लिए भूमि की गर्माहट बहुत जरुरी होती है। जीने की नई शुरूआत से पहले सोचता हूं..मैं अपना आरम्भ कितना पीछे छोड़ आया हूं। (कहीं कुछ टूटा हुआ सा है..शीशे सा।) 24.06.2013

चाहता हूं गंगा, यमुना, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र सहित तमाम नदियां अपनी जमीनों पर कब्जा कर लें

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Courtesy_Social Media 2009 में दूसरी बार दिल्ली आने पर यमुना से अपने साक्षात्कार के समय मैं मोटरसाइकिल की सीट पर बैठा था। पिछली सीट पर बैठे मैं अपने परिचित से पूछता यमुना कितनी दूर है। यमुना ब्रिज क्रास करते ही मेरे मुंह से निकला.. यही हैं यमुना जी.. उन्होंने तुरंत कहा.. बेवकूफ ये यमुना नहीं नाला है.. देख लिया.. बड़ा उछल रहा था। उनके बातों और लहजे का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ.. लेकिन यमुना की हालत देख दिल बैठ गया। और तब से जब तक मैं दिल्ली में रहा..मैं हर बार जब भी यमुना ब्रिज पार करता हूं.. हर बार यहीं सोचता हूं कि काश, कभी इतनी बाढ़ आए यमुना में कि सोफिस्टिकेटेड लुटियंस की दिल्ली डूब जाए.. यमुना अपनी जमीनों  पर वापिस कब्जा कर लें। मैं जब भी लुटियंस की दिल्ली से गुजरता हूं। ऊंचे ऊंचे मॉल और इमारतों को देखकर (जहां आम नागरिक घुसने से पहले एक बार सोचता है) मन में ख्याल आता है कि काश कभी दिल्ली में इतना तेज भूकंप आए कि ये कथित विकास की पैरोकार इमारतें धूल धूसरित हो जाएं। झुग्गियों और पिछड़े इलाकों में रहने वाले लोग इन जगहों पर अपने कब्जे जमा लें लेकिन ये संभव ही नहीं है। फिर देखता

मैं एक शहर में डूबने से डरता हूं..

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Courtesy_Google मैंने उत्तराखंड नहीं देखा मैंने टिहरी भी नहीं देखा इसलिए मैं तबाही की कल्पना करता हूं,  तो कंपकंपी सी होने लगती है लेकिन मैं दिल्ली से डरता हूं दिन रात बराबर  जैसे बच्चे अंधेरी रातों में भूतों से  वो शहर जो एक नदी को लील रहा है दिन रात बराबर मैं डर के मारे दरवाजे बंद कर लेता हूं.. गांव, कस्बों की ओर चला जाता हूं मैं एक शहर में डूबने से डरता हूं.. 24.06.2013

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

(कोई छह साल पहले लखनऊ के अख़बार अमृत प्रभात के साप्ताहिक संस्करण में अदम गोंडवी उर्फ़ रामनाथ सिंह की एक बहुत लम्बी कविता छपी थी : ``मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको´´। उस कविता की पहली पंक्ति भी यही थी। एक सच्ची घटना पर आधारित यह कविता जमींदारी उत्पीड़न और आतंक की एक भीषण तस्वीर बनाती थी और उसमें बलात्कार की शिकार हरिजन युवती को `नई मोनालिसा´ कहा गया था। एक रचनात्मक गुस्से और आवेग से भरी इस कविता को पढ़ते हुए लगता था जैसे कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रहे हों। कहानी में पद्य या कविता अकसर मिलती है - और अकसर वही कहानियां प्रभावशाली कही जाती रही हैं जिनमें कविता की सी सघनता हो - लेकिन कविता में एक सीधी-सच्ची गैरआधुनिकतावादी ढंग की कहानी शायद पहली बार इस तरह प्रकट हुई थी। यह अदम की पहली प्रकाशित कविता थी। अदम के कस्बे गोंडा में जबरदस्त खलबली हुई और जमींदार और स्थानीय हुक्मरान बौखलाकर अदम को सबक सिखाने की तजवीव करने लगे -  मंगलेश डबराल,  १९८८- "धरती की सतह पर " की भूमिका से ) आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको जिस गली में भुखमरी की यातन

अखबार की कतरनें

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मेरठ से प्रकाशित हिंदी दैनिक जनवाणी में...

चाय का एक कप

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courtesy_Google हर सुबह तुम्हें अपने हाथों की चाय पिलाना और बगल वाली खाली कुर्सी पर तुम्हारा इंतजार करना छूट गया है. और सुबह सुबह तुम्हारे भीगे बालों से टपकती उन बूंदों के बहाने तुम्हें छूना भी.. उबासियों के साथ महसूस करता हूं कि ढेर सारे लोगों से बेहतर चाय बनाने का नुस्खा मेरे पास है. और ये भी कि मैं खाना बनाने की बेस्टसेलर किताबें लिख सकता हूं. हमारे दरम्यान हजारों किलोमीटर की दूरी पनप आई है और इस दौरान मैंने हजारों कप चाय पी होगी. लेकिन उस स्वाद और मजे का अनुभव ना हुआ. जो तुम्हारे साथ बैठकर पीने में आता था. यहीं कमी चाय का एक कप बनाने के लिए मुझे बेचैन कर रही है. बिना तुम्हारे किचन के. लेकिन क्या वाकई मैं चाय के एक कप के लिए बेचैन हूं या तुम्हारे साथ मिलने वाले उस स्वाद और आनंद के लिए.. 12.06.2013