एफडीआई का जिन्न
एफडीआई पर चल रही ताजा बहस पर अगर व्यावहारिक बातें की जाए तो इसे समझना बेहद आसान हो जाता हैं। सबसे पहले मैं इस ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा कि मुल्क के (70 प्रतिशत से ज्यादा) लोगों की आय 20 रुपए से कम हैं या 20 रुपए रोजाना पर अपनी दिनचर्या गुजारते हैं। ये दावा मैं नहीं, बल्कि सरकारी तौर पर पेश एक रिपोर्ट करती हैं। गूगल बाबा से अगर आप पूछे तो आपको ढेर सारी जानकारियां मिल जाएंगी। अब सवाल ये उठता है कि वॉलमार्ट, कारफूर और टेस्को के स्टोर में 20 में रुपए का क्या मिलता हैं। शायद ये देश के वित्त मंत्री को पता हो। मुझे तो नहीं है। क्योंकि जिन बस्तियों में मेरे मां बाप रहते है वहां के लोगों की आय रोजाना बीस रुपए ही हैं।
अब, मैं जहां रहता हूं वहां सब्जी की एक ही दुकान है। जो रात के दस बजे के बाद बंद हो जाती हैं। यानी इससे पहले आप सब्जी नहीं खरीद पाए तो फिर अगली सुबह ही सब्जी नसीब होगी। जयपुर शहर का ये इलाका मालवीय नगर के नाम से जाना जाता हैं और इस चौराहे पर लगने वाले मार्केट को सेंटर प्वाइंट मानकर 1 किलोमीटर त्रिज्या का वृत्त खींच दूं तो इतनी दूरी में कोई और सब्जी की दुकान ua, इसकी जानकारी मेरे आसपास रहने वाले किसी व्यक्ति को नहीं हैं। यहां, सड़क किनारे लगने वाली एक सब्जी मंडी दो किलोमीटर दूर हैं। लेकिन इस भागमभाग वाली जिंदगी में जब सुबह के आठ बजे ऑफिस पहुंचना हो और रात के 8 बजे छुट्टी मिलती हो तो फिर इतनी दूर जाना क्या संभव हैं हर रोज। मेरे लिए तो भाई मुमकिन नहीं हैं और मैं हर रोज उसी दुकान से सब्जियां खरीदता हूं जो मेरे घर के बाहर चौराहे पर एकमात्र दुकान हैं। जहां सब कुछ फ्रीज कर रखा है। लहसुन से लेकर कोहड़ा तक। अन्य दुकानें भी है जहां अंडरवीयर से लेकर सुई तक सबकुछ मिलेगा यानि कहीं दूर जाने की जरुरत नहीं..पैसा दीजिए और फटाफट सामान उठाइए..पीछे खड़े आदमी को मौका दीजिए..खरीदने का..बड़ी मारामारी है..जीं यहीं कहते वे दुकानवाले...
थोड़ा पहले चलते है, ज्यादा नहीं महज तीन साल, जब मैं अपने गांव में रहता था। अब भी गांव जाता रहता हूं। लेकिन अब ये दीवाली, होली और रक्षाबंधन के बहाने तक सिमट कर रह गया हैं। हां, तो मैं कह रहा था मेरे गांव के पास हफ्ते में चार दिन बाजार लगता था सब्जियों का..कपड़ों का नहीं.. शाम को थैला लेकर जब हम लोग निकलते थे। हमारे पास बाजार में लगी कई सारी दुकानें होती थी यानि ज्यादा विकल्प..जहां से चाहो वहां से खरीदो एक नहीं..बल्कि दसियों..जुम्मन के यहां से आलू खरीदा तो रवीन्द्र शाह के यहां से प्याज..बाजार जब खुलता था तो दाम टाइट होते थे और दुकान वाले मोलभाव करने में आना कानी करते। लेकिन जैसे जैसे शाम गहराती सभी चीजों के भाव गिरने लगते यानि दुकान वाले घर निकलने की फिराक में होते। क्योंकि उन्हें अगले रोज बगल वाले में गांव में जाना होता..वहां के बाजार में सब्जी बेचने..हफ्ते भर यहीं काम चलता कभी इस गांव, कभी उस गांव..और सब्जियां तो कहिए मत..बिल्कुल ताजा खेत से तोड़कर लाए..और बाजार में गल्ला लगा दिया। बिक गया.. तो साइकिल उठाया..खेत गया..तोड़ खोद के लाए और बाजार में गल्ले पर चढ़ा दिया. खरीदो..और हां, जितना बेचना है उतना ही खेत से तोड़ लाते मेरे बाजार के दुकान वाले..
अब, मैं जहां रहता हूं वहां सब्जी की एक ही दुकान है। जो रात के दस बजे के बाद बंद हो जाती हैं। यानी इससे पहले आप सब्जी नहीं खरीद पाए तो फिर अगली सुबह ही सब्जी नसीब होगी। जयपुर शहर का ये इलाका मालवीय नगर के नाम से जाना जाता हैं और इस चौराहे पर लगने वाले मार्केट को सेंटर प्वाइंट मानकर 1 किलोमीटर त्रिज्या का वृत्त खींच दूं तो इतनी दूरी में कोई और सब्जी की दुकान ua, इसकी जानकारी मेरे आसपास रहने वाले किसी व्यक्ति को नहीं हैं। यहां, सड़क किनारे लगने वाली एक सब्जी मंडी दो किलोमीटर दूर हैं। लेकिन इस भागमभाग वाली जिंदगी में जब सुबह के आठ बजे ऑफिस पहुंचना हो और रात के 8 बजे छुट्टी मिलती हो तो फिर इतनी दूर जाना क्या संभव हैं हर रोज। मेरे लिए तो भाई मुमकिन नहीं हैं और मैं हर रोज उसी दुकान से सब्जियां खरीदता हूं जो मेरे घर के बाहर चौराहे पर एकमात्र दुकान हैं। जहां सब कुछ फ्रीज कर रखा है। लहसुन से लेकर कोहड़ा तक। अन्य दुकानें भी है जहां अंडरवीयर से लेकर सुई तक सबकुछ मिलेगा यानि कहीं दूर जाने की जरुरत नहीं..पैसा दीजिए और फटाफट सामान उठाइए..पीछे खड़े आदमी को मौका दीजिए..खरीदने का..बड़ी मारामारी है..जीं यहीं कहते वे दुकानवाले...
थोड़ा पहले चलते है, ज्यादा नहीं महज तीन साल, जब मैं अपने गांव में रहता था। अब भी गांव जाता रहता हूं। लेकिन अब ये दीवाली, होली और रक्षाबंधन के बहाने तक सिमट कर रह गया हैं। हां, तो मैं कह रहा था मेरे गांव के पास हफ्ते में चार दिन बाजार लगता था सब्जियों का..कपड़ों का नहीं.. शाम को थैला लेकर जब हम लोग निकलते थे। हमारे पास बाजार में लगी कई सारी दुकानें होती थी यानि ज्यादा विकल्प..जहां से चाहो वहां से खरीदो एक नहीं..बल्कि दसियों..जुम्मन के यहां से आलू खरीदा तो रवीन्द्र शाह के यहां से प्याज..बाजार जब खुलता था तो दाम टाइट होते थे और दुकान वाले मोलभाव करने में आना कानी करते। लेकिन जैसे जैसे शाम गहराती सभी चीजों के भाव गिरने लगते यानि दुकान वाले घर निकलने की फिराक में होते। क्योंकि उन्हें अगले रोज बगल वाले में गांव में जाना होता..वहां के बाजार में सब्जी बेचने..हफ्ते भर यहीं काम चलता कभी इस गांव, कभी उस गांव..और सब्जियां तो कहिए मत..बिल्कुल ताजा खेत से तोड़कर लाए..और बाजार में गल्ला लगा दिया। बिक गया.. तो साइकिल उठाया..खेत गया..तोड़ खोद के लाए और बाजार में गल्ले पर चढ़ा दिया. खरीदो..और हां, जितना बेचना है उतना ही खेत से तोड़ लाते मेरे बाजार के दुकान वाले..
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