SHORT STORY; ALIA


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12 घंटे कंप्यूटर स्क्रीन पर आंखे गड़ाने के बाद रोड किनारे खड़े अशोक के पेड़ों की पत्तियों को, सुहानी हवा के साथ झूमते देखना, आंखों के लिए सुकुन भरा था। चांदनी रात अपने शबाब पर थी और घड़ी की सुइयां एक दूसरे को आलिंगन कर रही थीं। जवां रात के आगोश में सड़कों पर चहलकदमी करना रुमानी भरा था। मैं कभी आसमां की ओर देखता, तो कभी मकानों की मुंडेर पर टिमटिमाते छोटे छोटे बल्बों को चिढ़ाता..तीन बंटा तीन सौ तीन, सब्जी मंडी से होते हुए जब मैं अपने आशियाने की चौखट पर पहुंचा, तो चारों तरफ सन्नाटा था। चांद, ऊंची दीवारों की ओट में छुप गया था और याद शहर का वो मोहल्ला लंबे-लंबे खर्राटे भर रहा था। एक दो बार कुत्तों के भौंकने की आवाजें भी सुनाई दी..जो कहीं अंधेरे में गुम हो गई..मैंने दरवाजा खटखटाया..कोई जवाब तो नहीं मिला..लेकिन दरवाजा खुल गया। ओह.. तो मिस आलिया सो गई हैं..और वो भी मेरे ही बिस्तर पे..क्या बात है...मैंने बैग पटका और आलिया को जगाने के लिए आवाज दी..आलिया, उठो यार, आज तो तुम बहुत जल्दी सो गई...डिनर कर लिया...आज पत्ते नहीं खेलोगी क्या...मैं यूं ही आवाज लगाता रहा..लेकिन आलिया ने कोई जवाब नहीं दिया...

किचन में झांककर लौटा तो देखा तकिए के नीचे मेरी पर्सनल डायरी दबी पड़ी थी। ये आलिया को कैसे मिली..इसे तो मैंने छुपा के रखा था। कई सवाल मेरे जेहन में उमड़ने लगे और मेरी नजरें बुकसेल्फ की छानबीन करने लगी..सभी किताबें अपनी जगह पर ठीक उसी तरह खड़ी थी जिस तरह मैंने उन्हें लगाया था। लेकिन ये डायरी तो मैंने सबसे ऊपर वाले सेल्फ में लगी किताबों के पीछे रखा था। हूं...तो आज मिस आलिया..ने पूरी बारीकी से बुकसेल्फ को खंगाला हैं। जेहन में उमड़ रहे सवालों की फेहरिस्त जुबां पर दौड़ पड़ी। नवाबों के शहर की आलिया और मैं एक दूसरे के कलीग हैं, कई सारी चीजों के मामले में, चाहे वो घर हो या ऑफिसखाना। पिछले 9 महीने से हम एक साथ रह रहे है..एक दूसरे के बारे में सब कुछ पता है हमें...फिर भी आलिया ने क्या सोचकर मेरी डायरी उठाया होगा ?...क्या जानना चाहती है वो..मेरे बीते हुए कल के बारे में...जो लड़की मेरा सामान उठाने से पहले मुझ पर ही शब्द बाण छोड़ती है..वो चुपके से मेरी डायरी क्यों पढ़ेगी ?
रात गाढ़ी हो चुकी थी। मैं सोई हुई आलिया के बगल में खड़ा उसके मनः मस्तिष्क में चल रहे सवालों का सिरा पकड़ने की कोशिश कर रहा था। इसी उधेड़बुन में मैंने तकिए के नीचे से अपनी डायरी खीचीं और उसे छुपाने के लिए आगे बढ़ा..फिर यूं ही ठहर कर डायरी के पन्ने पलटने लगा...देखा तो रेड कलर के मॉर्कर से डायरी के एक पन्ने पर आलिया लिखा था। ये आलिया की ही राइटिंग थीं...इसे पहचानने में मुझे कोई कन्फ्यूजन नहीं हुआ...लेकिन भीतर ही भीतर एक टीस सी उभरी... इसने ये क्या किया है...मेरी डायरी पे अपना नाम लिख दिया हैं। मेरे भीतर की बेचैनी बढ़ रही थी...क्योंकि अपनी किताबों या नोट्स पर मुझे अपना ही नाम लिखना पसंद नहीं था...मेरी कोशिश हमेशा यहीं रहती कि मेरी किताबें या नोट्स बिल्कुल साफ हो...लेकिन कोई इतने हक से ऐसा कैसे कर सकता हैं..कि किसी की पर्सनल डायरी पर अपना नाम लिख दें...हाथों में डायरी लिए मैं यूं ही खड़ा रहा..और फिर नई पहचान पाए उस पन्ने पर बिखरे शब्दों को तेजी से पढ़ने लगा...

सूरज ढलने के बाद गहराती शाम, प्लेटफॉर्म पर लोगों की जबरदस्त भीड़, दो कदम चलने के लिए लोग धक्कामुक्की कर रहे थे..लेकिन मैं प्लेटफॉर्म पर बनी रेलिंग पर बैठे हुए...स्याह रंग की चादर में लिपटे शहर की स्केचिंग कर रहा था..ये शहर अभी ठहरा नहीं था..कोई ऑटोरिक्शा वाला भोंपू बजाकर सवारियों को बुलाता, तो तांगे वाला घोड़े को टिटकार कर चलने को कहता...ट्रेन का इंतजार करना अब मुझे भारी लग रहा था...लेकिन ट्रेन के आने की घोषणा नहीं हुई थीं...थोड़ी देर बाद रेलवे का सायरन बजा...यात्रीगण कृपया ध्यान दें..स्टेशन पर आने से पहले अपने टिकट की जांच कर लें...वरना पकड़े जाने पर जुर्माने के साथ टिकट की रकम ली जाएंगी... रेलवे की इस घोषणा से मेरी हंसी छूट पड़ी..और कई सारे लोग मेरी ओर अचरज भरी निगाहों से देखने लगे..

इंतजार का समय धीरे-धीरे खत्म हुआ..एक बार फिर सायरन बजा....उद्यान आभा तूफान एक्सप्रेस कानपुर सेन्ट्रल के प्लेटफॉर्म नंबर तीन की ओर सरक रही थीं.. मेरा सहकर्मी अरविंद और मैं सामान कंधे पर टांगे और कुछ घसीटते हुए ट्रेन की तरफ लपके...शुरू की दो चार कंपार्टमेंट में नजर डालने के बाद हमें अपना कंपार्टमेंट मिल गया...लेकिन भीड़ इतनी थी कि चढ़ने से पहले ही पसीने निकलने लगे थे। हमने एक दूसरे की आंखों में देखा और अपने लिए जगह बनानी शुरू कर दी...कंपार्टमेंट के भीतर यात्रियों की इतनी भीड़ थी कि बैठने की तो छोड़िए, खड़े होने के भी चांसेज कम थे। ठसाठस भरे उस कंपार्टमेंट में हमने पंजों पर खड़े होने की जगह तो पाई लेकिन सर उठाना मुश्किल था। दरवाजों और खिड़कियों पर लोगों के बैग और झोले टंगे थे, जो लगातार सिर से टकराकर अपनी हाजिरी दर्ज कराते रहते। सर झुकाए नजर इधर-उधर दौड़ाई तो देखा एक अधेड़ उम्र की औरत एक खूबसूरत नाजनीन के साथ दुबकी पड़ी थी..क्या बात है.. ये लोग इस कंपार्टमेंट में कैसे आ गए..ना जाने क्यों मैं उनकी तरफ बढ़ता गया.. अरे भाई साहब, थोड़ा सीधे खड़े होइए ना, और भी लोग है..अपने बल पर खड़े होंगे तो औरों को थोड़ी राहत मिल जाएंगी...जैसे तैसे हमने उन दो लोगों के लिए राहत के मौके बनाएं...बिना उनकी गुजारिश के...

ट्रेन पटरियों पर दौड़ने लगी थी..हालांकि रफ्तार अभी अपने रौ में नहीं थी. बातचीत का सिलसिला मैंने ही शुरू किया था. कहां जाना है आंटी.. सामने से जवाब आया फतेहपुर, बगल में खड़े अरविंद को शायद कन्फ्यूजन था उसने कहा, फतेहपुर सीकरी..और दसियों लोग एक साथ मुस्कुरा उठे...आंटी ने पूछा क्या करते हो बेटा ? जी आंटी, पढ़ता हूं...बस इतनी सी ही बातें हुई थी उनसे...बातचीत के दरम्यान मैंने एक बात नोटिस कि..दरवाजे से खड़ी वो नाजनीन बड़ी देर से हमें देख रही थीं...शायद मेरा बेवजह उनके लिए जगह बनाना और बात करना रास नहीं आ रहा था..मेरा अंदाजा तो यहीं था...खैर, हमने बातों का सिलसिला उनकी तरफ मोड़ा और बातचीत शुरू हुई..पढ़ने पढ़ाने और घर की बातों के बाद उनका रुख बदलने लगा था. आंखों पर चश्मा चढ़ाए उस नाजनीन ने पहली बार जुबां खोला था...और आप क्या करते है...मैं भी आप की ही तरह स्टूडेंट हूं..एक दो स्टेशन गुजर चुके थे और भीड़ के बावजूद हमारे बीच दूरियां थोड़ी कम होने लगी थी. जबकि ट्रेन का वो कंपार्टमेंट जवाब दिए जा रहा था।

अब ट्रेन पूरी रफ्तार में दौड़ रही थी और हम वाया आंखों से होकर करीब आ रहे थे। थोड़ी देर बाद ट्रेन रुकी और एक दो लोगों के उतरने के बाद मेरे बगल में थोड़ी सी जगह बन गई, जहां कोई भी आसानी से खड़ा हो सकता था। आंटी ने उस नाजनीन को कहा, जाओ, वहां खड़ी हो जाओ..नाजनीन ने आंटी की आज्ञा का पालन किया और मेरे बदन के सारे तार झंकृत होने लगे। उस खूबसूरत नाजनीन की इक छुअन मेरे बदन को हिलोर रही थी। एहसासों के तमाम दिये एक साथ जल चुके थे, भागती ट्रेन के दरवाजे से हवा का झोंका आता और एहसासों के दिये भभक उठते...आंटी ने मेरी कसमसाहट देख कुछ कहा, 5 मिनट बाद वो नाजनीन मेरे बगल से हट चुकी थी, मैंने खुद को रिफॉर्म किया..लेकिन भावनाओं की बाती बुझी नहीं थी...अचानक भीड़ बढ़नी शुरू हो गई.. किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकी थी और लोग लगातार चढ़ रहे थे मानो यह ट्रेन का सामान्य डिब्बा हो..ट्रेन के रुके होने से गर्मी और पसीने से लोग आजिज थे. ट्रेन चली तो भीड़ का दबाव बढ़ने लगा..लिहाजा आंटी को मैं अपनी ओट में ले आया..ताकि उन्हें कोई परेशानी ना हो..हाथों के घेरे से मैं भीड़ को रोकने की कोशिश करता..इस पूरी मशक्कत के दौरान उस नाजनीन और मेरे बीच का फर्क सिर्फ 10 से 15 इंच का था। भीड़ से बचने के लिए मुझे अपनी ओर दबाव बनाना पड़ा.. जिसके चलते मेरी गर्दन थोड़ी झुकी सी थी और उनका हाथ आंटी के कंधों पर था, ट्रेन द्रुत गति से हिचकोले लेती.. तो ऐसा लगता मेरे होंठ अब छू जाएंगे.. उनके हाथों को...ट्रेन जब तक हिचकोले खाती रहीं ये क्रम चलता रहा..


ट्रेन की रफ्तार के साथ आंखों से आंखों की टकराहट बढ़ रही थी और हमारी बेचैनी भी, ट्रेन के दरवाजे पर नजर दौड़ाई तो देखा कि एक शख्श नजरें गड़ाए हमारी तरफ देख रहा है. ऐसा करते हुए उसे लंबा वक्त हो चुका था..फिर भी मुझे उसकी परवाह ना थीं.. देखता रहे.. आंखो पर चश्मा चढ़ाए उस नाजनीन से इतना जान पाया था कि वो नवाबो के शहर से आ रही थीं...जबकि वो आंटी उनकी मां है..उनके भाईजान एक बैंक में मैनेजर है । उनकी मां के व्यक्तित्व से ऐसा लगा कि वो अपने सुहाग के दिनों पर पर्दा डाल चुकी हैं। मैं आंखे खोले उनकी तरफ देखता रहा..कि अचानक उन्होंने करवट बदल ली...अब उनकी पीठ मेरी ओर थी...भीड़ पर नींद हावी हो रही थी..अंदर से एक हूक सी उठी और मेरी तर्जनी छोटे से सांप की तरह उनके बाजू पर चढ़कर उतर गई..कहीं कोई हलचल नहीं हुई...हम एक दूसरे से लिपटने के मानिंद चिपट गए और हमारी उंगलियां एक दूसरे से उलझी पड़ी थी...पलकें झपकाए..वो कभी मुझे देखती, कभी आंखे बंद कर लेती, और मैं उनकी अदाओं पर फिसलते हुए उलझी हुई उंगलियों के जाल में उलझता जा रहा था..

इस बीच आंटी की आवाज गूंजी, कहां खोई हो..लेकिन वो खोई ही रही..इस बार आंटी ने जोर देकर पुकारा..जवाब आया..क्या है ?. कहां खोई हो ?...कहीं तो नहीं...सेकेंडों बाद हमारी उंगलियां दोबारा उलझ गई थीं। इस दफा ट्रेन की रफ्तार में तेजी थी...सवा घंटों से हो रहा ये रोमांस अब रंग बदलने लगा था....दरवाजे पर खड़ा वो शख्श जो शुरू से ही हम पर नजरें गड़ाए बैठा था, उसने आंटी से कुछ कहा, वो फुर्ती से हमारी तरफ बढ़ी, उन्हें देख मैंने उंगलियां खींच ली, और आंटी ने हमारे दरम्यान फासले तय कर दिए..फासलों के दो छोर पर खड़े हम एक दूसरे को अवाक निहारते रहे... दौड़ती ट्रेन ने हॉर्न दिया शायद कोई स्टेशन था..दूर से ही रोशनी का धुंधलका नजर आ रहा था। कई सारी आवाजें एक साथ उभरी...फतेहपुर आ गया। सफेद और स्याह सवालों के साथ नाजनीन की आंखे मेरे चेहरे पर टिकी थी और मैं शून्य भाव लिए खड़ा रहा..ट्रेन रुक चुकी थी..लोगों के साथ वो नाजनीन भी हौले हौले कदमों से कंपार्टमेंट की सीढ़ियां उतर गई।  

एक हॉर्न के साथ ट्रेन सरकने लगी थी, लेकिन मुझ पर एक अपराधबोध हावी होने लगा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरे भीतर ये भाव कैसे पैदा हो रहे है। मन में कहीं ना कहीं उनसे जुड़ने का माध्यम ना ले पाने का अफसोस था। लेकिन सीढ़ियां उतरती उस नाजनीन का ख्याल आता, तो ये भाव हावी होने लगता कि कहीं वो हमें हब्शी ना समझ लें..जिसने अपना सफर काटने के लिए कथित हमदर्दी, सहानुभूति और भावनाओं की लौ जलायी थी...उद्यान आभा तुफान एक्सप्रेस ट्रेन पूरे वेग से पटरियों पर दौड़ रही थी और पूरी तरह भरा होने के बावजूद वह कंपार्टमेंट अब खाली खाली सा लग रहा था...दरवाजे पर खड़े लोग अब बैठ गए थे...हाल्टनुमा एक स्टेशन गुजरा, जहां एक मालगाड़ी खड़ी थी, जिसके कंटेनर पर लिखा था टर्नओवर...

बरसों बाद याद शहर के अपने आशियाने में आधी रात को अपराधबोध का वह भाव एक बार फिर मुझे अपनी चपेट में ले चुका था....भारी मन से मैंने डायरी आलिया के बेड पर सरकायी और खाली बोतल की तरह लुढ़क गया...अगली सुबह जब नींद खुली तो देखा ताजी धूप खिड़कियां चमका रही थी, और कहीं दूर से रद्दी वाला पुराने अखबार खरीदने के लिए आवाज लगा रहा था..मैं आहिस्ते से उठा और फर्श पर बैठ गया..किचन से कप में कॉफी उड़ेलने की आवाज आ रही थीं..किचन से निकल आलिया बाहर आई..मैं बहुत डरा हुआ महसूस कर रहा था..लेकिन पूरी ताकत से मैंने अपनी नजरें आलिया से मिलाई..वह बहुत फ्रेश और खुश लग रही थी..हर रोज की अपेक्षा उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थीं..ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरा हर राज जानती हो...या फिर मुझे देखकर बहुत जोर से ठहाका लगाना चाह रही हो..मैं उसे देखता रहा..नजरें झुकाए..वो चहकते हुए आई और बोली..कॉफी, मैं आलिया, पॉयनियर कॉलेज, लखनऊ य़ूनिवर्सिटी, उद्यान आभा तूफान एक्सप्रेस, मम्मी के साथ, चश्मा उतर गया है लल्लू...सच बोलते हो, लेकिन हार जाते हो, तुम मुझे पहचान नहीं पाए..लेकिन मैंने तुम्हें ढूंढ़ लिया..फिर थोड़ी खामोशी के बाद...उसने आंखों में आंखे डाल के कहा, बुकसेल्फ में कब तक छिपोगे..हम दोनों की उंगलियां फिर उलझ गई थी....

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