साइकिल का पंक्चर
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photo Courtesy_google |
हां ये सच हैं। यकीन मानिए, उसका बाप उसे मात्र एक रुपया देता था। जब वह अपने कॉलेज के लिए जाता था। वह भी महीने में कभी कभार, जून 2008 में एक रुपए में क्या मिलता होगा ? आपको बता दूं उस जमाने में साइकिल का पंक्चर भी पांच रुपए में बनता था। लेकिन उसके लिए ये अमूमन रोज की ही बात थी। कभी अगला टायर पंक्चर हो जाता तो, कभी पिछला, कभी चेन खराब हो जाती तो कभी ब्रेक काम नहीं करते, यहां तक की उस साइकिल की सीट भी टूटी हुई थी। जिस पर ठीक से बैठा जा सके। लेकिन मुफलिसी से घिरे होने के बावजूद वह घबराता नहीं था। हां कभी-कभी वह चिढ़ने लगता था। उस दिन भी उसके मन में यहीं सवाल उठ रहे थे।
कैसी है उसकी ये जिंदगी ? महीने में तो बीस दिन साइकिल को ठेलते ही घर चला जाता है। या ये कहूं
कि साइकिल ही उस पर सवार होकर घर जाती है। क्या फायदा साइकिल के होने या ना होने
का। इससे अच्छा तो पैदल ही आता जाता। इन्हीं सवालों के बीच उसे अपने आप तरस आ रहा
था कि उसके पिताजी उसे चार रुपए नहीं दे पाते है कि वह साइकिल का पंक्चर बनवा ले।
यह सोचकर उसकी आंखे भर आती थी और एक बार फिर वह ख्यालों में डूब जाता।
कौन है इस दुनिया जहान में जो मेरे बारे में सोचता है। कोई ऐसा रिश्तेदार
भी तो नहीं जिसकी माली हालत अच्छी हो और उसकी मदद कर सकें। फिर वह काल्पनिक
ख्यालों में तैरने लगता कि काश, उसकी कोई गर्लफ्रेंड होती जिसके पास काफी पैसा
होता। फिर तो उसे कोई दिक्कत ही नहीं होती। वह उससे मांगकर काम चला लेता। लेकिन
अफसोस उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं थी। इसी दरम्यान उसे कुछ याद आता और फिर कुछ
सुनाने के अंदाज में वह कहता, यार कल अनुपमा ने मेरी दीदी से कहा था कि बाबू को
कुछ पैसे दे दिया करिए। साइकिल खराब हो जाती है तो कॉलेज से पैदल ही चला आता है।
पूरे 15 किलोमीटर, कितना दूर है। पैदल ही रास्ते में दिख जाता है, बहुत तेज धूप
होती है, अच्छा नहीं लगता। इतना कहने के बाद वह हंसने लगता, और कहता यार, मुझे पता
है वह मुझे चाहती है। लेकिन बताती नहीं है। फिर खुद ही दोहराता जानता हूं क्या
कारण है। मैं कहां इतना गरीब और वह कहां अमीर बाप की बेटी।
हां मैंने तो आपको अनुपमा के बारे में बताया ही नहीं, लंबी सी खूबसूरत
नैन नक्श की मालकिन। दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते है। मुहल्ले के सारे लड़के आहें
भरते थे उसे देखकर। लेकिन किसी क्या मजाल कि कोई कमेंट कर दें, पलट कर जवाब देती थी। लेकिन
पता नहीं क्यों बाबू के प्रति उसका नजरिया हमेशा हमदर्द का रहा। छठवीं क्लास में
दोनों ने साथ पढ़ना शुरू किया था। बाबू प्राइमरी से आया था लेकिन तेज तर्रार था।
जबकि वह अपने पिता के पास शहर से पढ़कर आई थी। दोनों के बीच बातचीत ना के बराबर होती
थी। लेकिन जब भी वे किसी मोड़ पर टकराते दोनों की निगाहें एक साथ बतियाने लगती।
मानो एक दूसरे से कुछ कह रही हो लेकिन उनकी जुबां हमेशा चुप ही रही।
आइए, अब प्वाइंट पर जहां मैं बाबू को छोड़कर आया था। उस दिन हम लोग
पुल पार करने ही वाले थे। कोई दो सौ मीटर बचा रहा होगा। तभी मैंने देखा कि अनुपमा
अपनी सहेलियों के साथ तेज रफ्तार साइकिल पर सवार होकर आ रही है। मैंने कहा देख
तेरी साइकिल पंक्चर है और अब तो तेरी बेइज्जती होने वाली है। तेरी ड्रीम गर्ल के
सामने। सबको पता चल जाएगा कि तू किस हाल में है। क्या सोचेगी सब देखकर तुझे, कितना
गरीब है। अब कहा जाएगा तू..
उसने तुरंत कहा यार, रुक ना देख पुल पर कितनी खूबसूरत हवा बह रही है।
आ, कुछ देर हवा खाते है। उसने तुरंत पंक्चर साइकिल को पुल की रेलिंग के सहारे
टिकाया और खड़ा हो गया। हवा का एक झोंका उसे छूकर गया और उसके चेहरे पर से सारे
शिकन गायब और होंठो पर एक निष्छल हंसी तैरने लगी। वह पुल से नीचे झांककर देखने लगा
और कहा, अरे देख ना गंगा आज कितनी खुश लग रही है। देख ना ऐसा लग रहा है जैसे पुल
के पायो को उखाड़ देगी। तभी झटककर सीधा खड़ा होता है और उसकी नजरें साइकिल पर सवार
तेजी से भागती अनुपमा पर टिक जाती। सभी लड़कियां उसे देखने लगती है और सबकी आंखों
में एक सवाल तैरने लगता है। आखिर महीने में बीस दिन यहां पुल पर खड़ा होकर यह मुस्कुराता
क्यों रहता है।
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