बरसों रे मेघा
उमस और तपन से आजिज़
कोसता प्रकृति को मानव,
फिर लगाता प्रकृति से गुहार मानव
बरसों रे मेघा ! मेरे घर के आँगन !!
ओधोगिक्ता के मद में चूर मानव
समझ नहीं पाता खुद की आरजू को,
काटता, मिटाता और छेड़ता
प्रकृति को मानव,
मजबूर करता प्रकृति को, क़ि बदल जाये
धुप ठंडक और बारिश का मौसम !!
ना समझ, धो रहे खुद के पापों को
बातों और सेमिनारो के पसीनो से,
मांग रहे है प्रकृति से बूंदों क़ि भीख
हमदर्द प्रकृति को आ रही तरस,
खुद को निचोड़कर बरस रही प्रकृति
इन बेदर्द ना समझ मानवों पर !!
कोसता प्रकृति को मानव,
फिर लगाता प्रकृति से गुहार मानव
बरसों रे मेघा ! मेरे घर के आँगन !!
ओधोगिक्ता के मद में चूर मानव
समझ नहीं पाता खुद की आरजू को,
काटता, मिटाता और छेड़ता
प्रकृति को मानव,
मजबूर करता प्रकृति को, क़ि बदल जाये
धुप ठंडक और बारिश का मौसम !!
ना समझ, धो रहे खुद के पापों को
बातों और सेमिनारो के पसीनो से,
मांग रहे है प्रकृति से बूंदों क़ि भीख
हमदर्द प्रकृति को आ रही तरस,
खुद को निचोड़कर बरस रही प्रकृति
इन बेदर्द ना समझ मानवों पर !!
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें