इक प्यास

इक प्यास सी लगी है तुझे देखकर
भीग रहा है तन बदन
बारिश की बूंदों से..
लेकिन प्यास बुझती नहीं..
पिया नहीं जा रहा कुछ
तुझे देखकर..

ये कैसी प्यास है
जो नहीं बुझती
पानी के कतरों से
तड़प रहा हूं
पानी पीकर भी..
तू क्या है, जो
बढ़ती जा रही है प्यास
तुझे देखकर..

अजीब इत्तेफाक है
पसरा है पानी हर तरफ
पीता जा रहा हूं
कि, शायद मिट जाए
तुझे देखकर..
ये बढ़ती जा रही है
अनंत की तरफ
ये प्यास मिटती नहीं
तुझे देखकर..

आके करीब पिला दो
अपने लबों से..
तेरे हाथों के स्पर्श से
बना जाम..
भिगो जाएगा
जिस्म को
अंदर से..
ये प्यास मिट जाएगी
तुझे पाकर..
तू क्या है जो
किसी में जगा देती है
इक प्यास
और करीब आके
मिटा देती है प्यास..

28.03.2013

* मई 2008 में लिखी गई यह कविता आज मैंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट की है. 



टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (30-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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