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प्रिये, तुम अनन्त आकाश हो!

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Pic: Google मैं हर दिन हर रात हर पहर हर पल अपनी सैकड़ों फंतासियों में हर पल पिरो रहा हूँ तुम्हें मेरी सांस की हर माला  तुम्हारे बदन की महक में लिपटी है. मैंने इन सहस्त्रों सालों में करोड़ों फूलों को स्पर्श किया है लेकिन वो कोमलता भरी गर्माहट  मुझे नहीं मिली मृदुल पंखुड़ियों में मैं हजारों योनियों में जन्मा सहस्त्रों वर्षों भटका तुम्हें पाने को बगिया बगिया इस ब्रह्मांड में ढूंढ़ते हुए तुम्हारा एक स्पर्श मैंने करोड़ों आकाश गंगाओं को  नंगी आंखों से निहारा उनकी आंखों में झांक के देखा लेकिन नहीं मिली वो हया जो तुम्हारी आँखों में है जिनकी क्षणिक बौछार भिगो देती है मुझे तुम्हारा पका कत्थई जिस्म छाया है मेरी आँखों पर  अनन्त आकाश की तरह मैं अपनी सीमित कल्पनाओं में  तुम्हें उकेर रहा हूँ अपनी अंगुलियों से रंग भर रहा हूँ मन की कन्दराओं में बनी तुम्हारी छाया भित्तियों में पलकों पर, होंठो पर ग्रीवा से उतर कर नाभि तक नितम्बों से उठाकर कूल्हों पर फैला दिया है  धानी रंग तुम्हारी पीठ पर फैला दी है गुलाब की पंखुड़ियां  ताकि

प्रेम धधकता बहुत है.. दिलों में

उपलों की तरह उदासियां  थाप दी गई है कल्पनाओं के कैनवास पर  और तब से ओढ़ ली है मैंने खामोशी  तुम्हारे ना होने से उपजे दर्द को ढंकने के लिए  लेकिन एक दिन मैं उगल दूंगा भाव शून्य होने से पहले  सारा दर्द.. सारी खामोशी  उस मटके में  जिसे तुमने रखा था गुलाब रोपकर  मकान के मुंडेर पर  ये कहते हुए कि ये हमारे प्रेम का प्रतीक है. अब मुरझाने लगा है  वो.. लाल गुलाब  उसकी सांसों की आवृति डूबने लगी है लेकिन प्रेम डूबेगा नहीं मैं रोप दूंगा उसे  भूमि की कोख में  गर्माहट से भरी एक सुबह  मेरा प्रेम आंखें खोलेगा और तब दुनिया जानेगी दो अनजान प्रेमियों के बारे में  जो अछूत थे, दुनिया के लिए  जिनका प्रेम असहय था  पाक-साफ, धोई-पोछी संस्कृति के लिए  लोग पूछेंगे.. उनका गुनाह क्या था?  प्रेम समा नहीं पाता  दुनियानवी खांचों में  मैंने देखा है.. उपलों की आग की तरह  संस्कृति के अहरा पर  प्रेम धधकता बहुत है..  दिलों में.. 21-02-2014

KHATO KI AAWAJAHI

मानवी दुनिया को सुरक्षित करने के बहाने जब प्रेम , खुशी और गम जताने वाले शब्द फिल्टर होने लगे तो सात समंदर पार से उसने आभासी दुनिया में सावर्जनिक रूप से प्रेम जताना छोड़ दिया , वो जानता था कि जासूसों की गिद्ध नजर से उसकी निजता बच नहीं पाएगी। उसने आभासी दुनिया से विदा ले ली .. और अपने महबूब के लिए खत लिखना शुरू किया .. इस तरह प्रेम में भीगे शब्दों को सहेजे खतों की आवाजाही बढ़ गई ... 22-01-2013

साइकिल का पंक्चर

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photo Courtesy_googl e दिन के बारह बज रहे होंगे। जेठ का महीना था, शहर और देहात को जोड़ने के लिए गंगा के ऊपर बने तीन किलोमीटर लंबे पुल पर हवा कुछ ज्यादा ही तेज ही थी। बैरियर के नीचे साइकिल पंक्चर होने के बाद बाबू पैदल ही पुल पार करने के मूड में था। हालांकि अब उसे साइकिल को ठेलना पड़ रहा था। दरअसल उसकी साइकिल का पिछला पहिया पंक्चर हो गया था और उसके पास इतने पैसे नहीं थे वह उसे ठीक करा सके। हां ये सच हैं।  यकीन मानिए, उसका बाप उसे मात्र एक रुपया देता था। जब वह अपने कॉलेज के लिए जाता था। वह भी महीने में कभी कभार, जून 2008 में एक रुपए में क्या मिलता होगा ? आपको बता दूं उस जमाने में साइकिल का पंक्चर भी पांच रुपए में बनता था। लेकिन उसके लिए ये अमूमन रोज की ही बात थी। कभी अगला टायर पंक्चर हो जाता तो, कभी पिछला, कभी चेन खराब हो जाती तो कभी ब्रेक काम नहीं करते, यहां तक की उस साइकिल की सीट भी टूटी हुई थी। जिस पर ठीक से बैठा जा सके। लेकिन मुफलिसी से घिरे होने के बावजूद वह घबराता नहीं था। हां कभी-कभी वह चिढ़ने लगता था। उस दिन भी उसके मन में यहीं सवाल उठ रहे थे। कैसी है उसकी ये जिंदगी