संदेश

Hindi literature लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कहानीः मुन्ना बो

ये कहानी लिखने का मेरा मकसद उस खेतिहर मजदूर महिला की स्थिति को बयान करना था। जिसे कई बीघा खेतों के मालिक , स्वयंभू राजाधिराज अपनी उपभोग की वस्तु समझते थे.... राम प्रसाद के तीसरे बेटे की शादी में मुन्ना बो जमकर नाचीं। गांव के बैंड बाजे में उस समय नागिन धुन खूब चलन में था। बाजे वालों की टिरटिराती धुनों पर उसके बदन के लोच ने मुहल्ले के पहलवानों का चैन नोंच लिया। दरअसल मुन्ना बो पहली बार गांव वालों के सामने आई थी , अलहदा तरीके से बिना लाज शर्म के बाजे में नाचते हुए और उनका इस तरह सबके सामने आना खुले आकाश में लपकती बिजली की तरह था। हालांकि रामप्रसाद के तीसरे बेटे की शादी थी , इसलिए  दूल्हे का श्रृंगार देखने में भी व्यस्त थे। लेकिन परछन खत्म होते ही सबकी निगाहें मुन्ना बो पर टिक गई। तराशे हुए नैन नक्श और चम्पई रंग वाली मुन्ना बो की अल्हड़ चाल को देखकर मुहल्ले के छोकरों और मर्दों के बदन में सांप लोटने लगा। बिना संकोच किए वह किसी से भी बात कर सकती थी। यह उसके व्यक्तित्व की खासियत थी या कमजोरी यह खुद उसे भी मालूम नहीं था। तीसरे भाई की शादी के बाद मुन्ना पहली बार पंजाब से लौटे थे। दरअ

अटकना

चित्र
अंकुर जायसवाल आज इक कविता लिखने बैठा मैं, क्योंकि मैंने दो लाइनें सोचीं थी या कह लूं महसूस की थी कुछ दिनों से और सरलता से कहूँ तो जो कुछ भी महसूस किया था मैंने कुछ दिनों में वो उन दो लाइनों में था | तो आज सब कामों को निपटा कर लिखने बैठा मैं पर दिक्कत यह थी कि कविता तो दो लाइनों कि होगी नहीं, और शायरी करने मुझे आती नहीं फिर भी शुरू किया मैंने कविता को लिखना दो लाइनों का अंत लेकर चार लाइनों का छंद लिख दिया मैंने , अब इन चार लाइनों के साथ अंतिम दो लाइनों की दूरी को तय करने निकला और बीच में अटक सा गया मैं जैसे अभी इस कविता को आगे लिखने में अटक गया हूँ | यह ठीक वैसा ही अटकना है या उलझना है जैसे शुरू करते हैं हम सफर सपनों को पूरा करने का या सपनों को सच करने का पर उन दो पंक्तियों का सपना कभी असली पन्नों पर नहीं उतर पाता अटक जाते हैं हम चार पंक्तियों का काम कर के और फिर लिखने लगतें हैं एक और कविता   इस अटकने पर | और रह जाती हैं वह दो मूल पंक्तियाँ सपनों की तरह सपनों में......                 अंकुर जायसवाल
चित्र
कौन कहता है ? कवि सम्मेलन के दिन लद गए .. आम दिनों की तरह मैं दफ्तर में ही था। जयपुर शहर के बिड़ला ऑडिटोरियम में कवि सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। मैं जाना चाहता था कवि सम्मेलन में लेकिन पास का जुगाड़ हो नहीं पाया था। ईमानदारी से कहूं तो पास के लिए मैंने कोशिश भी नहीं की थी। लेकिन दिल में इच्छा थी कि चलकर गोपाल दास नीरज को सुना जाए। उनसे साक्षात रूबरू हुआ जाए और जिनकी कविताओं और गीतों का पाठ बचपन में किया करते थे। खुद उनकी आवाज में कविता पाठ सुना जाए। शाम के पांच बज रहे थे। मेरी शिफ्ट खत्म होने वाली थी। लिहाजा कवि सम्मेलन में जाने का मेरे पास अच्छा मौका था। मैंने पास के लिए अपने साथी सहकर्मी से कहा, और बंदोबस्त हो गया। आधे घंटे बाद मैं निकल चुका था गोपाल दास नीरज को सुनने के लिए... पहली बार एक श्रोता के तौर पर कवि सम्मेलन में शिरकत करने जा रहा था। इससे पहले कभी बिड़ला ऑडिटोरियम भी नहीं आया था। इसलिए ऑटो वाले को बोला कि भइया थोड़ा तेज चलो। ऑटोचालक भी जवान था और मेरे प्रेरित करने से उसने गियर दबाया और 5 बजकर 45 मिनट पर मैं बिड़ला ऑडिटोरियम में था। भव्य बिड़ला ऑडिटोरियम