ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मराठी उपन्यासकार भालचंद्र नेमाड़े से बातचीत

Marathi Novelist Bhalchandra Nemade_Nandlal Sharma
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Marathi Novelist Bhalchandra Nemade_Nandlal Sharma
सवालः ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसे सम्मान लेखक को एक निश्चित दायरे से बाहर लेकर आकर आते हैं? और रचनाकार को एक बड़े फलक पर स्थापित करते हैं. क्या मैं सही कह रहा हूं?
जवाबः अपनी अपनी भाषा में तो पहले ही पहचान होती है, जो बुनियादी तौर ज्यादा मूल्यवान होती है. लेकिन दूसरी भाषाओं में अगर पाठक वर्ग बढ़े तो लेखक के लिए बहुत खुशी की बात होती है. इस तरह लेखक के विचार को विस्तार मिलता है और साथ ही पहचान भी.

सवालः आप लंबे समय से रचनाशील रहे हैं. आपको साहित्य अकादमी बहुत पहले मिल गया और ज्ञानपीठ पुरस्कार अब जाकर मिला है. हालांकि ज्ञानपीठ मिलने के साथ ही विवाद भी शुरू हो गए, तो इन पुरस्कारों की राजनीति और विवाद पर क्या कहेंगे?
जवाबः किसी भी पुरस्कार को एक लेखक को हमेशा दूर से ही देखना चाहिए. अगर देने वालों को लगा कि ये कुछ काम कर रहा है और मिल गया तो ठीक है. नहीं मिला तो उससे बिगड़ता कुछ नहीं है. अपना काम तो चलता ही रहता है. लेखन पर इसका कोई असर नहीं होता.

सवालः ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद आपने सलमान रुश्दी और वीएस नॉयपाल के खिलाफ कुछ कहा और रुश्दी ने आपके खिलाफ मोर्चा खोल दिया?
जवाबः सलमान रुश्दी को मालूम नहीं कि मैंने उसको पढ़ाया है. मैं कुछ नहीं करता, वो एक दूसरा मेला चल रहा था, उसमें कुछ बोला था. उसके बाद तबसे बोल रहा है.

सवालः वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में जब हिंदूशब्द के नए-नए मायने गढ़े जा रहे हैं. ऐसे में आपकी किताब हिंदूको पढ़ना क्यों जरुरी है.
जवाबः यही वक्त है जब हिंदू संकल्पना का सही अर्थ समझना जरुरी है. हिंदू परंपरा का प्राचीन काल से चला आ रहा समावेशी स्वरुप सामने आना चाहिए. हिंदू परंपरा सबको साथ लेकर चलती रही है. हमेशा सबको अच्छा कहा है, सबको साथ लिया और दुनिया में ऐसी कही परंपरा नहीं है. इसलिए मैं चाहता हूं कि 'हिंदू संकल्पना' का ऐसा अर्थ सामने आए.

सवालः चेतन भगत जैसे हिंदी के कथित हितैषी हिंदी को रोमन में लिखे जाने की वकालत कर रहे हैं.
जवाबः लिपि और भाषा का सवाल बहुत भावनात्मक होता है. मैं समझता हूं हिंदी कोई बहुत कम दर्जे की भाषा नहीं है. हिंदी की एक बहुत बड़ी परंपरा रही है. बड़े-बड़े लेखक रहे हैं, लिखने और पढ़ने वालों की बड़ी तादाद रही और दुनिया की शायद तीसरी-चौथी बड़ी भाषा है. हिंदी क्यों बदले अपनी लिपि? करोड़ों लोगों की भाषा को क्यों जरुरी है लिपि बदलना? यह कोई प्रैक्टिकल बात नहीं है और रोमन लिपि बहुत साइंटिफिक नहीं है.

सवालः हमारे पाठकों के लिए हिंदू: जीने का समृद्ध कबाड़के बारे में बताएं.
जवाबः 'हिंदू: जीने का समृद्ध कबाड़' मेरा तीसरा उपन्यास है. ये चार खंडों में है. चार खंड इसलिए कि पहले खंड में मैंने एक देहाती लड़के की कहानी कही है, जो एक पुरातत्वविद् बनता है. इसके बाद वाले खंड में भूतकाल में अपनी संस्कृति की रचना कैसे बदलती आई और उसकी स्वरचना कैसे हुई और आजतक इसमें कैसे बदलाव आए और हमने कैसे उसे अपनाया. इसको बयान किया है. किसी को यहां खत्म नहीं होना पड़ा. जैसे कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में हुआ. यह एक बहुत ही सशक्त परंपरा रही है और मुझे 'हिंदू' शब्द का अर्थ विशाल करना है.

सवालः भारतीयों के दूसरी भाषा के तौर अंग्रेजी को अपनाने और अपनी भाषाओं को ना पढ़ने पर आप क्या कहेंगे?
जवाबः इस चुनौती का हल अंग्रेजी बंद करने से होगा. हम अंग्रेजी पूरी तरह हटा नहीं सकते, क्योंकि हम गुलाम रहे हैं, तो इतनी जल्दी नहीं जाएगी. लेकिन जापान, कोरिया और चीन जैसे देश अपनी भाषाओं में पीएचडी तक को पढ़ते हैं. हमारे यहां भी ऐसा होना चाहिए. अंग्रेजी पर निर्भर होने की जरुरत नहीं है. इस देश में अंग्रेजी आने से पहले सब कैसे चलता था. मराठा साम्राज्य कैसे चला, विशाल मुगल साम्राज्य कैसे चला.

सवालः स्कूलों में जर्मन की जगह संस्कृत पढ़ाने के केंद्र सरकार के फैसले पर जमकर विवाद हुआ और जर्मन की जगह संस्कृत को नहीं मिली.
जवाबः हमारे यहां का उच्च वर्ग और सत्ता में बैठे हुए लोग अंग्रेजी को रखना चाहते हैं. इनकी सोच है कि अगर हम अंग्रेजी को रखेंगे तो सत्ता में रहेंगे. उनकी सोच है कि ये देहाती लोग है, इन्हें कुछ आता नहीं है. और जब तक ये लोग हैं तब तक अंग्रेजी जाएगी नहीं. ऐसे में जब तक जनता विद्रोह नहीं करती कि हमें अपनी भाषा में पढ़ना है, तब तक संभव नहीं है. क्योंकि दुनिया में कहीं भी दूसरी भाषा में पढ़ने की परंपरा नहीं है. सिर्फ हमारे यहां है, क्योंकि हम गुलाम रहे हैं.

सवालः अपनी भाषाओं की वकालत करने पर एक वर्ग लोगों को राष्ट्रवादी कह देता है. उसका कहना है कि यह देश लिबरल रहा है और आपको लिबरल होना चाहिए?
जवाबः ये मानसिक विकृति है कि जो अपना है उसको विकृत कहना, उसको राष्ट्रवादी कहना और जिसको अंग्रेजी आती है उसको लिबरल कहना है. दुनिया के भाषा शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि का आकलन अपनी भाषाओं में ही संभव है. सोचने के लिए अपनी भाषा चाहिए होती है.

सवालः ‘हिंदूके पूरा होने के बाद आप सिर्फ कविता लिखने की योजना बना रहे हैं. ऐसा क्यों?
जवाबः वो कहते हैं ना कि पहला प्यार.. तो ये मेरा पहला प्यार है. बचपन से मेरे पास कविता है. हमारा जीवन कविता से जुड़ा रहा है. चाहे महिलाओं का अनाज पीसना हो या खेती-किसानी, कविता हमारे जीवन का अभिन्न अंग रही है. मेरा पहला लेखन कविता ही रहा है.

सवालः हिंदी लेखकों में आपके प्रिय दोस्तों की सूची में कौन-कौन हैं?
जवाबः हिंदी लेखकों में चंद्रकांत देवताले, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल सहित कई लोग है, जिनके साथ आत्मीय संबंध हैं.

सवालः मराठी साहित्य की कई पीढ़ियों को आपने देखा है. नए लेखकों के बारे में आप क्या सोचते हैं.
जवाबः मराठी साहित्य में उपन्यास लिखने वाले बहुत अच्छे हैं. हालांकि कविता वहां थोड़ी पीछे है. मुझे लगता है कि हिंदी आगे बढ़ रही है और मराठी थोड़ी संकुचित हो रही है.

सवालः आपने हाल ही में एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि जाति ही इस देश को अखंड रखेगी. इसको समझाइए?
जवाबः जाति व्यवस्था एक सिस्टम है. जिसमें हर कौम के लोग, हर भाषा के लोग, हर तरीके के खाने पीने वाले लोग, अलग-अलग भूखंडों से आए लोग. मध्य एशिया, अफगानिस्तान, चाइना से सब लोग इधर आए, और उनका स्वाभिमान कायम रहते हुए, उनको जगह मिली इधर और किसी को नेस्तूनाबूद नहीं किया गया. अपनी-अपनी भाषा है, पोशाक की शैली, खाने-पीने की शैली. जो भी उनका तरीका है उसको रखके हमने जाति बनाई. जाति को लेकर जो व्यवस्था बनी वो इसलिए कि हर एक अपनी स्वायत्ता और स्वाभिमान के साथ रह सके.

सवालः लेकिन स्वाभिमान कैसे, एक दलित, जो मंत्र सुन लेता था तो उसके कान में गर्म तेल डाल दिया जाता. उसको पढ़ने नहीं दिया गया और भी बहुत कुछ?
जवाबः इसका जाति व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं है.

सवालः कैसे संभव है, एक व्यक्ति को सिर्फ जाति के नाम पर कुछ करने नहीं दिया जा रहा है. गुलामों की तरह रखा गया, तो जाति व्यवस्था ठीक कैसे है.
जवाबः ये गुलामी का जो तत्व है, अगर पूरी दुनिया में देखें, तो ये जाति संबंधित नहीं है. स्वार्थ और शोषण का जो तरीका है, उससे ये आया है. यह जाति व्यवस्था को सांप समझकर जमीन पर लाठी मारना है. असल में इसके पीछे स्वार्थ और शोषण है. दलित तत्व की बात जो आप कह रहे हैं ये बहुत पुरानी बात नहीं है. ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के आगे स्पृश्यता का प्रभाव आया. गुलामी हर देश में रही है और हमारे यहां जो बर्ताव रहा है, उससे बहुत बुरा दूसरे देशों में रहा है. ये अलग बात है लेकिन इसका जाति व्यवस्था से कोई संबंध नहीं है. जाति व्यवस्था अलग-अलग लोगों के स्वतंत्र रहने की व्यवस्था है. उसमें जो दूसरी चीजें आ गई उससे जाति व्यवस्था को बदनाम किया गया. जाति व्यवस्था दरअसल एक क्षैतिज (Horizontal) व्यवस्था थी, जिसे स्वार्थी लोगों ने लंबवत (Vertical) बना दिया. ताकि उनका स्थान ऊपर रहे, लेकिन जाति व्यवस्था में ये नहीं है. हर जाति के लोग समान हैं और उनका अपना अधिकार है. यही जाति व्यवस्था का अर्थ है तभी यह हजारों से चली आ रही है वरना खत्म हो जाती.

सवालः आप महाराष्ट्र से हैं और भीमराव अंबेडकर भी वहीं से थे. मौजूदा समय में तमाम दलित चिंतक जाति व्यवस्था को तोड़ने की वकालत करते हैं और आप कह रहे हैं कि जाति व्यवस्था ही इस देश को अक्षुण्ण रखेगी.
जवाबः इसके पीछे एक बात है कि ग्राम संस्था में दलित वर्ग के पास आय का कोई स्त्रोत नहीं था, तो उनका शोषण ज्यादा किया गया. शोषण के स्तर पर वे सबसे नीचे थे. सबसे ज्यादा खराबी उनके नसीब में आ गई. इसलिए उनका जाति व्यवस्था के खिलाफ होना बिल्कुल वाजिब है. फिर भी अगर देखा जाए तो जाति व्यवस्था तोड़ी जाए ये कहना ठीक है, लेकिन यह सैद्धांतिक रूप से संभव नहीं है. जाति व्यवस्था तोड़ने का मतलब है कि बड़े देश में आपकी कोई आइडेंटिटी नहीं रहेगी. होना तो ये चाहिए था कि जाति संस्था की उत्क्रांति होनी चाहिए थी. वो पिछले दो शतकों में नहीं हुई, क्योंकि हम गुलाम थे और हम इसमें कुछ नहीं कर सके. इसके उलट अंग्रेजों ने पहले जो जाति व्यवस्था थी उसको ज्यादा मजबूत किया. जनगणना वगैरह करके और हमको सर्टिफिकेट देकर पक्का कर दिया. पहले यह नहीं थी, पहले लोग बदलते थे. पहले इतनी ज्यादा जातियां बदली है अपने यहां कि कौन क्षेत्रीय था और कौन वैश्य था. किसको पता? शिवाजी क्षत्रिय बन गए, शुद्र थे. तुकाराम शुद्र थे. ये हर्षवर्धन आदिवासी था. ये लोग क्षत्रिय बन गए, तो ये होता था, लेकिन जनगणना के बाद असंभव हो गया.

सवालः जाति आधारित जनगणना की मांग होती रही है. इस पर आपका क्या सोचना है.
जवाबः जनगणना में जाति का उल्लेख ना हो ये मैं मानता हूं. शिक्षा में देखें, तो एडमिशन के लिए जाति के उल्लेख की कोई जरुरत नहीं है. जाति व्यवस्था एक अलग बात है और जाति का स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया जाना एक बहुत अलग बात है. हालांकि ये हमेशा मिक्स होती है, इसलिए स्वच्छ तरीके से सामने नहीं आ रही है.


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