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सितंबर, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लव जेहाद’ के शोर में बोलती दीवारों वाला आईना लेकर खड़े हैं इरशाद कामिल

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image_Nandlal Sharma प्रेम जरूरी है किताबों के लिए किताबों से परे केवल बहकावा एक और रख रहा हूं देखिए.. लड़की का प्रेम फितूर लड़के का अय्याशी लड़की का प्रेम जहर लड़के का लहू लड़की का प्रेम मां का रक्तचाप, बाप का हृदय रोग भाई की शर्मिंदगी, मौसी का मसाला बुआ की झोंक, चाची का चटखारा पड़ोसी की लपलपाती जीभ अन्ततः शादी लड़के का प्रेम आज, चलो दूसरी ढूंढ़ें. वाणी प्रकाशन  से प्रकाशित  बोलती दीवारें .. जब दो किरदारों के जरिए फुसफुसाती है तो ये पाठक के कानों को ‘भारी’ लगती हैं. लेकिन जब वे बीच बीच में छोटे-छोटे अंतराल पर कविताएं पढ़ती है, तो अंतर्मन में छोटे-छोटे बुलबुले फूटते हैं और उससे हल्की हल्की आवाज उभरती है इरशाद..इरशाद. बोलती दीवारें..  इरशाद कामिल  लिखित नाटक है. जिसे पढ़ते हुए कई बार लगता है कि आप किसी मुंबइया फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हो. इरशाद खुद भी यह कहते हैं कि ‘यह नाटक फिल्मी प्रेम पर सैकड़ों गीत लिखने की थकावट का नतीजा है’. लिहाजा अब पाठक को यह तय करना है कि थकावट का नतीजा अच्छा है या बुरा. नाटक की समीक्षा लिखते वक्त जब वर्त

बुक रिव्यू: मुर्गीखाने में रुदन को ढांपने खातिर गीत गाती कठपुतलियां

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Courtesy_Vani prakashan मुकुटधारी चूहा.. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित राकेश तिवारी का कहानी संग्रह है. सात कहानियों के इस संग्रह में कुछ बेहद रोचक कहानियां है. इन कहानियों के अनेक रूप है जो कड़े सवाल करती है. 'अंधेरी दुनिया के उजले कमरे में' रहने वाले 'मुकुटधारी चूहों' की हकीकत बयां करती ये कहानियां बताती है कि 'मुर्गीखाने' में नाचती 'कठपुतली' भी आखिर में थक जाती है. अपराधबोध जब हावी होता है, तो एक किशोर भी 'साइलेंट मोड' में चला जाता है. किताब में कहीं भी राकेश तिवारी के बारे में जानकारी नहीं दी गई है. लेकिन इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि ये उत्तर भारत से ताल्लुक रखती है और यहां बसे समाज की खिड़कियों पर चढ़ी काली फिल्में नोंच डालती है ताकि सड़ांध का पता सबको लग सके और फड़कती मूंछों का कोलतार उतर सके. तिवारी के इस संकलन की वैसे तो सभी कहानियों रोचक और पढ़ने लायक है लेकिन 'मुकुटधारी चूहा' और 'मुर्गीखाने की औरतें' जरूर पढ़ी जानी चाहिए. सभी कहानियों में तो नहीं लेकिन कुछ में आंचलिकता का पुट है, लेकिन दर्शन सबमें उपस्थित है.

गोरखनाथ का दर्शन और योगी आदित्यनाथ

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Courtesy_Google नाथ पंथ के प्रणेता गोरखनाथ जिस दर्शन को स्थापित कर रहे थे वह हिन्दू धर्म से भिन्न, जोगी दर्शन था. वह सनातनी पाखंडों से अलग, समाज के अस्पृश्य लोगों के योग साधना पर आधारित था. वह हिन्दू-मुस्लिम विभाजन के खिलाफ था, वो मूर्ति पूजा के भी खिलाफ था और बहुत हद तक सूफीवाद के करीब था. गोरख कहते हैं- हिन्दू ध्यावै देहुरा मुसलमान मसीत/जोगी ध्यावै परमपद जहाँ देहुरा न मसीत.. अर्थात हिन्दू देवालय में ध्यान करते हैं, मुसलमान मसजिद में किन्तु योगी उस परमपद का ध्यान करते हैं, जहाँ न मंदिर है और न मस्जिद. योगी के लिए देवालय, मठ, मस्जिद और इनके अतिरिक्त भी, सब जगह परमात्मा का सहज बोध सुलभ होता है. कबीर पंथ और नाथ पंथ में बहुत हद तक समानता है. कबीर कहते हैं- पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का.. गोरखनाथ कहते हैं- वेदे न सास्त्रे कतेब न कुरांने पुस्तके न बांच्या जाई/ते पद जांनां बिरला जोगी और दुनी सब धंधे लाई. कबीर की उलटबांसिया भी नाथ पंथ से ली गयी हैं. गोरखनाथ कहते हैं- हिन्दू आषे राम को मुसलमान षुदाइ/ जोगी आषे अलष को तहां राम अछे न षुदाइ. ( ष को ख क

Uttar Pradesh Ghazipur Duhia in Pics 2

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    All images_Nandlal Sharma

जब शहर हमारा सोता है

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फनियर और खंजर जैसे दो झुंड में बंटे दस बीस लौंडे किसी भी सुहासधाम और करीमपुरा के हो सकते हैं. ये एक ही धर्म-जाति के या अलग-अलग हो सकते हैं. चूंकि झुंड में बंटे है, तो लड़ेंगे ही और यह लड़ाई खेल के मैदान में भी हो सकती है और चचा की दुकान पर भी, ताकि अमुक गली पर किस झुंड की बपौती होगी, गली हिंदू है या मुसलमान, उस टोले की है या इस मुहल्ले की. यह तय किया जा सके. पीयूष मिश्रा के शहर में भी फनियर और खंजर में बंटे लौंडे जर, जमीन और जोरू के लिए लड़ते रहते हैं. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पीयूष मिश्रा लिखित नाटक ‘जब शहर हमारा सोता है’ इस देश में होने वाले सांप्रदायिक दंगों के कारणों का सटीक विवरण है. मेरठ, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगों की कहानी भी पीयूष के ‘शहर’ से मिलती जुलती है.   पीयूष मिश्रा के तेवर और ताब से सजे इस नाटक को मंच पर ना देख पाने का मलाल तो मुझे है लेकिन इसे किताब की शक्ल हाथों में लेकर पढ़ना भी रोमांचक है. पीयूष के लिखे डॉयलॉग खालिश भदेस है और यही उनके पात्रों की ताकत भी.. जैसे, नाटक के एक दृश्य में त्यागी बोलता है.. ‘एक हाथ पड़ने की देर है

एक दिन दिल्ली को ठोकर मार लौट आऊंगा मेरे जहां

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Courtesy_Nandlal Sharma मैं गांव जाता हूं और जब लौटने लगता हूं गांव छोड़ तो वापस आने का मन नहीं करता दिल चाहता है रूक जाऊं ना जाऊं दिल्ली की ओर इस जमीं और आसमां को छोड़कर कुछ कर लूं इधर ही अगर पैसा कमाना ही है तो... मन भारी हो जाता है टूटने लगता है ट्रेन जितनी तेज चलती है मन उतनी तेजी से रोने को करता है लेकिन रो नहीं पाता ना जाने कितने छूट जाते है... हरे भरे खेत और बारिशों के मौसम दमकता सूरज और बाहें फैलाएं चांद भरे पूरे खेत और ओस की बूंदे लेकिन टूटे हुए भारी मन से मैं अपनी जमीं छोड़ ट्रेन के साथ डगराता चला आता हूं। लौटने के लिए दबाव डालता है दिल जिद पर अड़ा रहता है कि मैं लौट चलूं अपने जहां में जहां रातें हैं भोर हैं और दोपहर भी जहां सुनहरी बूंदों में भीगी हुई रोशनी हर सुबह आवाज देती है मैं जानता हूं एक दिन सब छोड़ छाड़ कर लौट आऊंगा उस जहां में जहां धरती मेरी है आसमां मेरा है मेरे अपने हैं और तब मैं घूमूंगा हरियाली चादर ओढ़े उन खेतों में हर रोज। बिना नागा बालियों को सहलाऊंगा और पेड़ों पर चढ़ हवाओं संग अठखेलियां करूंगा मैं ठोकर मारूंगा इ

UTTAR PRADESH VARANASI GHAZIPUR DUHIA IN PICS

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