विदेशी खेल अपने मैदान पर: भारतीय क्रिकेट का सामाजिक इतिहास

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भारत को एक सूत्र में बांधने वाले धागों में एक धागा क्रिकेट भी है. सामाजिक और जातिगत भेदभाव के मुश्किल दिनों से ही क्रिकेट समाज में आपसी समरसता का वाहक बना. राजनीतिक, सामाजिक और राष्ट्रीयता के मुद्दे क्रिकेट के आगे दम तोड़ते गए.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'विदेशी खेल अपने मैदान पर: भारतीय क्रिकेट का सामाजिक इतिहास' में भारतीय क्रिकेट के हर पहलू का शानदार विश्लेषण किया है. इसी किताब से कुछ चुनिंदा अंश जो क्रिकेट के भूत को एक झटके में बेपर्दा कर देते हैं.

जहां महारानी की पताका फहराई, क्रिकेट खेला गया
क्रिकेट का भारत में पहला विवरण 1721 में मिलता है जब ब्रिटिश नाविकों ने आपस में कैंबे पत्तन पर एक मैच खेला. इतिहासकार लिखते हैं, हमारे सैनिकों को हॉर्स गॉर्ड्स के आदेश पर उनके रिहायशी इलाकों के पास ही क्रिकेट के मैदान उपलब्ध कराए गए और महारानी के जहाज में उपलब्ध गेंद और बल्ले समुद्र के तिलचट्टों और किनारे पर केकड़ों और कछुओं को हैरान कर देने को मौजूद थे. इस तरह जहां भी महारानी के सेवकों ने विजय पताका फहराई और मौसम अनुकुल था, क्रिकेट खेला गया.

क्रिकेट कम मनोरंजन
इंग्लैंड के बाहर पहला क्रिकेट क्लब कलकत्ता क्रिकेट क्लब 1792 में ब्रिटिश शासन काल के दौरान बना. क्लब ने अपना पहला मैच उस विशाल मैदान पर खेला जो आज भी फोर्ट विलियम को चारों ओर से घेरे हुए है और जहां क्रिकेट की मानवीय कसरत शाम को खाने और नाच तक जारी रहती जहां खिलाड़ी एक दूसरी तरह से अपनी क्षमता आजमाते.

भारतीय जमीन पर पहला शतक
बारह साल बाद यानी 1804 में कलकत्ता क्रिकेट क्लब ने ओल्ड एंटोनियस और ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ खिलाड़ियों के बीच एक महान क्रिकेट मैच प्रायोजित किया. इस मैच में रॉबर्ट वनसिटार्ट ने शतक लगाया, जो भारत की धरती पर किसी भी खिलाड़ी का पहला शतक था.

भारत में सट्टेबाजी का पहला दांव
ओल्ड एंटोनियस और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच खेला गया मुकाबला भारत में लगाए गए पहले सट्टे के लिए भी यादगार है. ओल्ड एंटोनियंस ने सभी अनुमानों को धता बताते हुए मैच एक पारी से जीता. उनके खिलाफ भाव 2-1 का था.

हिंदू, मुस्लिम, अंग्रेज और पारसी 
आजादी से पहले भारतीय क्रिकेट धर्म के आधार पर बंटा था, लेकिन जातिगत भेदभाव की भावना भी गहरे तक मौजूद थी. फिरंगियों के अलावा देश में मुख्यतः हिंदू, मुसलमान और पारसियों की टीमें थी, जो आपस में एक दूसरे को चुनौती देते थे.

पावलंकर भाइयों का बोलबाला
हिंदू टीम में एक लंबे समय तक पावलंकर भाइयों का बोलबाला था. पावलंकर बंधुओं को मिश्रित क्रिकेट टीम में जगह के लिए संघर्ष करना पड़ा. उन्हें अपने साथियों द्वारा इस्तेमाल किए गए जूठे कप और प्लेट में चाय और रोटी खाना पड़ता था.

पहला हिंदू क्रिकेटर
रामचंद्र विष्णु नावलेकर क्रिकेट खेलने वाले पहले हिंदू थे और उन्होंने इस क्षेत्र में सन् 1861 में प्रवेश किया.

जीत की उम्मीद बालू 
हिंदुओं की टीम में चमार जाति के पावलंकर बालू जीत की उम्मीद थे. खेल के मैदान पर उच्च जाति के खिलाड़ी उसी गेंद को छूते थे जिसको बालू छूते थे, लेकिन मैदान के बाहर उच्च जाति के खिलाड़ी छुआछूत के धार्मिक रिवाजों का पालन करते थे. चायकाल के दौरान क्रिकेट पवित्र हो जाता था. बालू मिट्टी के बर्तन में चाय पीते और दूसरे खिलाड़ी चीनी मिट्टी के सफेद प्याले में. अगर बालू हाथ मुंह धोना चाहते, तो क्लब का अछूत नौकर मैदान के एक कोने में केतली लेकर जाता था और पानी उड़ेलता था. बालू भोजन भी अलग थाली में अलग टेबल पर करते थे.

नौकर का नायक बनना
पावलंकर बालू बाएं हाथ के मध्यम गति के स्पिन गेंदबाज थे. बालू ने एक नौकर के तौर पर खेलना शुरू किया. जिसका काम अंग्रेजों को नेट पर प्रैक्टिस कराना था. इसके बदले उन्हें कुछ आने मिल जाते थे. बॉलिंग के साथ वो बल्लेबाजी भी शानदार करते थे. उस समय टेस्ट क्रिकेट ही खेला जाता था. ऐसे में बालू को गुच्छों के रूप में विकेट मिलते.

मोहनदास करमचंद गांधीः एक जबरदस्त क्रिकेटर 
राजकोट अल्फ्रेड हाई स्कूल में महात्मा गांधी के सहपाठी रतिलाल घेलाभाई मेहता के मुताबिक गांधी एक जबरदस्त क्रिकेटर थे. वे बल्लेबाजी और गेंदबाजी दोनों में अच्छे थे और उन्हें खेल की अनिश्चितताओं की अद्भुत समझ थी. मेहता ने राजकोट शहर और राजकोट कैंट के बीच खेले गए एक मैच का किस्सा सुनाया जो उन्होंने एक विद्यार्थी के रूप में देखा था. स्पष्ट रूप से मैच के निर्णायक क्षण पर, शायद पूर्वाभास से, गांधी ने कहा कि वह विशेष खिलाड़ी आउट होगा और कमाल हो गया. वह बल्लेबाज सचमुच आउट हो गया. गांधी की मृत्यु के 10 साल बाद मेहता ने ये वाकया एक गुजराती अखबार को सुनाया. मेहता के मुताबिक गांधी को स्कूल में शारीरिक अभ्यास से चिढ़ थी. गांधी ने अपनी आत्मकथा में भी इस बारे में लिखा है.

क्रिकेटरों को टोस्ट परोसते जिन्ना

1924 में मुसलमानों ने हिंदू टीम को हराकर पहली बार चैंपियनशिप जीती. फाइनल के बाद मुस्लिम छात्र संघ ने अपने विजयी क्रिकेटरों को डिनर पर बुलाया. बरकतल्लाह खान के सितार वादन के बाद खाना और भाषण हुआ. जो आदमी क्रिकेटरों को टोस्ट पूछ रहा था वह बंबई का श्रेष्ठ मुसलमान नागरिक मुहम्मद अली जिन्ना था. जो उस समय हिंदू मुसलमान एकता के दूत थे. आगे चलकर जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग मुल्क के हिमायती बने.

चुनाव मैदान में उतरने वाला पहला क्रिकेटर
पावलंकर बालू पहले ऐसे क्रिकेटर हैं जो क्रिकेट से संन्यास के बाद चुनावी राजनीति में उतरा. हिंदू महासभा के टिकट पर बालू चुनाव मैदान में उतरे. ये उनकी लोकप्रियता को दर्शाता है. समाज में जातिगत भेदभाव होने के बावजूद हिंदू महासभा ने बालू को टिकट दिया. और हां, यह इमरान खान और गुयाना के रॉय फ्रेड्रिक्स से बहुत पहले हुआ.

और क्रिकेट से इतर
खेल में भेदभाव की सबसे भयंकर कहानियां दक्षिण अफ्रीका से आईं. 1963 में नटाल ओपन के विजेता भारतीय मूल के दक्षिण अफ्रीकी गोल्फ खिलाड़ी सेवसुनकर सेवगोलुम को पुरस्कार समारोह में नहीं बुलाया गया. दरअसल पुरस्कार समारोह शुरू होने से पहले ही बारिश शुरू हो गई. इसलिए कार्यक्रम का आयोजन क्लब के भीतर सरका दिया गया. भाषण दिए गए और सफेद चमड़ी के विजेता गोल्फरों को पुरस्कार बांटे गए. उन दिनों नियमों के अनुसार किसी भी कुत्ते और अश्वेत व्यक्ति का इमारत में प्रवेश प्रतिबंधित था. सेवगोलुम विजेता होकर भी बाहर बारिश में कुत्तों के साथ भीगते रहे और इंतजार करते रहे कि क्लब का चपरासी उन्हें उनका मेडल और चेक देकर जाएगा.

http://aajtak.intoday.in/ के लिए


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