Kejriwal giving sleepless nights to Narendra Modi

"हां, हम चोर हैं और हमने कांग्रेस की नींद चुराई है" ये शब्द बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के है, जो अपनी रैलियों में कांग्रेस पार्टी की स्थिति बयान करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। हिंदी पट्टी के चार राज्यों में बीजेपी की सफलता और कांग्रेस की करारी हार का समीकरण मोदी के पक्ष में दिखता है। लेकिन इन्हीं चार राज्यों में से एक दिल्ली के परिणाम बीजेपी पर भारी पड़े है। आम आदमी पार्टी का उभार और केजरीवाल के जादुई नेतृत्व कौशल ने नरेन्द्र मोदी की नींद उड़ा दी है। जब यह तय हो चुका है कि "आप" दिल्ली में सरकार बनाएंगी, मंगलवार को बीजेपी चुनाव प्रचार समिति की बैठक होने जा रही है जिसमें लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान को नई गति देने और रणनीति बनाने पर चर्चा होगी। इसके साथ ही बीजेपी के मुख्यमंत्रियों की भी बैठक होने जा रही है.. "आप" के चमत्कारी उभार ने बीजेपी को मजबूर कर दिया है कि लोकसभा चुनाव के लिए वह अपने पेंच कस लें, अन्यथा आप को हल्के में ना लेना दिल्ली की तरह भारी पड़ जाएगा।

बीजेपी को यहां दुरूस्त करने होगी अपनी रणनीति

पहला, दिल्ली में बीजेपी भले ही सीटों के मामले में "आप" से बाजी मार ले गई हो, लेकिन केजरीवाल ने उन्हें कड़ी चक्कर दी है। 28 सीटें लेकर "आप" ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने की तैयारी कर ली। "आप" के लोकसभा चुनाव में उतरने की घोषणा के बाद दिल्ली के चुनावी रण में तीन मुख्य प्रतिद्वंदी होंगे, ऎसे में बीजेपी को आप की काट ढूंढ़ना होगा, क्योंकि बीजेपी का चुनाव प्रचार कांग्रेस मुक्त भारत पर टिका था। अगर आम आदमी पार्टी अगले 6 महीनों में दिल्ली को बेहतर प्रशासन देने में सक्षम रही तो बीजेपी और मोदी की राह कांटों भरी हो सकती है।

दूसरा, दिल्ली में आप की जीत सबसे बड़ी रही है, जिसने ना केवल चुनावी परिणामों पर झाड़ू फेरी, बल्कि दिल्ली की जनता को एक नया विकल्प दिया। मूल तौर पर शहरी मध्यवर्गीय पार्टी "आप" के पास ना केवल मजबूत दृष्टिकोण है बल्कि जनता का प्रभावी समर्थन है। 8 दिसंबर के चुनावी नतीजों के बाद की खबरों को देखें तो आप मुंबई और बाकी बड़े शहरों से चुनाव लड़ने की तैयारी में है। अगर ऎसा होता है तो आप के विस्तार को रोक पाना बीजेपी और मोदी के लिए कड़ा इम्तिहान होगा।

तीसरा, कई लोग यह कह सकते है कि लोकसभा चुनाव की तस्वीर विधानसभा चुनावों से अलग होगी। यहीं राज्य लोकसभा चुनाव में अलग तरीके से वोट करेंगे। ऎसे में मोदी को क्षेत्रीय पार्टियों से कड़ी चुनौती का सामना करना होगा। क्षेत्रीय पार्टियों के पास अपने लोकल मुद्दे है और पब्लिक से उनका जुड़ाव राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले कहीं ज्यादा है।

चौथा, राजस्थान में अशोक गहलोत की हार ने स्पष्ट कर दिया है कि लोकलुभावने वादे चुनावों में जीत की गांरटी नहीं हो सकते। गहलोत के साथ शीला दीक्षित को भी हार का सामना करना पड़ा। सस्ते चावल के लिए फेमस रमन सिंह की सरकार को कड़ी चुनौती मिली। हालांकि बीजेपी ने बड़ी चतुराई से जनता के सामने अपने मुद्दे रखे है। लेकिन दिल्ली के चुनाव परिणामों "आप" की सफलता से पता चलता है कि जनता बेहतर साफ सुथरी और बेहतर प्रशासन चाहती है। मोदी इसके सामना कैसे करते है.. ये आने वाले वक्त में पता चलेगा।

पांचवां, विधानसभा चुनावों में मोदी फैक्टर की खूब चर्चा हुई। लेकिन उनके आलोचकों ने इस बात को पकड़ रखा कि दिल्ली में क्या हुआ.. जबकि उनके समर्थक राजस्थान और मध्य प्रदेश के साथ छत्तीसगढ़ और दिल्ली के साथ भी उनको श्रेय दे रहे थे। लेकिन सच कुछ और है..

छत्तीसगढ़ का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा गया, जबकि गुजरात से सटे होने का फायदा राजस्थान को मिला। वसुंधरा राजे के लिए अकेले दम पर राजस्थान में जीत हासिल करना संभव नहीं था, राजस्थान की जीत मोदी लहर में बहती हुई राजे के पाले में आ लगी। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को पूरा श्रेय जाता है और मोदी की इसमें कोई बड़ी भूमिका नहीं रही है। अगर दिल्ली में बीजेपी को 32 सीटें मिली है तो कहा जा सकता है कि कि मोदी के चलते ही "आप" सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन पाई।

संक्षेप में, मोदी ने अंतर पैदा किया है। लेकिन स्थानीय चुनाव केवल उनके दम पर नहीं जीते जा सकते। राष्ट्रीय चुनाव में उनकी भूमिका बड़ी होगी। लिहाजा बीजेपी इन चुनावों में मोदी फैक्टर की उम्मीद पाले हुए हैं।

"आप" की बीजेपी के साथ क्षेत्रीय पार्टियों के लिए चेतावनी है। विश्लेषकों का मानना है कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत है वहां भी बीजेपी को बढ़त मिल सकती है, लेकिन बीजेपी ऎसा कर पाने में सफल होगी? ऎसे में "आप" एक विकल्प हो सकती है। क्षेत्रीय पार्टियों की छवि बीजेपी या कांग्रेस से कोई बेहतर नहीं है। अगर "आप" मुंबई सहित राज्यों की राजधानियों में चुनाव लड़ती है तो क्षेत्रीय वोटरों का प्यार भी उसे मिल सकता है। क्षेत्रीय पार्टियां स्थानीय मुद्दों और जनता से जुड़ाव के मामले में राष्ट्रीय पार्टियों से अलग होती है। लेकिन चुनावी रण में "आप" के उतरने के बाद उन्हें अपनी रणनीति पर दोबारा सोचना होगा। उन्हें बीजेपी की गलती दोहराने से बचना होगा, जिसने आप को हल्के में लिया और फिर एक महीने पहले अपना सीएम उम्मीदवार बदलकर स्थिति संभालने की कोशिश की।

बीजेपी को अब केवल कांग्रेस से नहीं बल्कि शहरी इलाकों में "आप" से भी टक्कर मिलेगी। ऎसे में अगर अगले 6 महीनों में "आप" लोस चुनाव को लेकर अपनी योजना का खुलासा करती है तो बीजेपी को अपनी चुनावी अभियान में आमूलचूल बदलाव करने होंगे। सत्ता विरोधी वोटों के टूटने की स्थिति में इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि मोदी लहर बीजेपी/एनडीए को जीत दिला पाएगी। 

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