शिक्षक दिवसः तुम्हारी मां पागल है क्या..

गांव का प्राइमरी स्कूल जिसे ढहा दिया गया था..नई इमारत बनाने के लिए..उसके मलबे पर कक्षाएं लगी हुई थी. पहली से लेकर 5वीं तक के बच्चे अपने बोरे बिछाकर (प्लास्टिक या जूट के बने हुए होते थे, जिसे बच्चे बैठने के लिए इस्तेमाल करते थे, सरकारी स्कूल में बच्चों को टाट भी मुनासिब नहीं था) बैठे या पसरे हुए थे..लकड़ी की बनी पटरियां कालिख में लिपटी थी..जिसे शीशे की दवात से रगड़कर चमकाया जा रहा था. ताकि दूधिया से लिखे गए शब्द मोती की तरह चमके..तीसरी क्लास में बैठा एक बच्चा अपने एक सहपाठी के साथ गुणा भाग करने में व्यस्त था..दोपहर की धूप में मास्टर जी (तब मास्टर जी लोगों की संख्या दो थी और दोनों मिलकर उस स्कूल को चलाते थे) अपनी कुर्सी पर बैठकर ऊंघ रहे थे..दिन ढल रहा था..कुछ बच्चे लड़ रहे थे..कुछ अपने बोरिए पर अधलेटे पड़े थे..कुछ चोर सिपाही खेलने में मशगूल थे..गुरु जी इन सबसे अनभिज्ञ थे..उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि उनके बच्चे क्या कर रहे है..तीसरी क्लास के उस बच्चे की मां सहसा मलबे पर लगी क्लास में पहुंचती है और अपने बच्चे को समझाने लगती है..क्लास में ऐसे में नहीं बैठते..बस्ता ऐसे रखते है..क्या कर रहे हो..वो अपने बेटे को डांटती है..तुम्हारी किताब कहां है..सभी लोग उसे देखने लगते है..तब तक उसकी मां लौट चुकी होती है..कुर्सी पर ऊंघते गुरुजी की तंद्रा टूटती है और उस बच्चे से मुखातिब होते हुए अपनी खीझ जाहिर करते है..तुम्हारी मां पागल है क्या..चली आती है परीक्षक बनकर..सहमा सा वो बच्चा गुरुजी को जवाब नहीं दे पाता. 

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