इक कप के मिठास में
सोचा कि इस गम को
डुबोके पी जाऊं शराब में
पीते-पीते शाम हो गई
गम तैरता रहा..
मेरे ही ख्याल में
लाजवाब है..हर कला आपके अंदाज में
हर कोई घुलता है..इक कप के मिठास में
बड़ी बेसब्र है दुनिया
कि कौन कातिल है यहां
गर वो मिले अपने कफन में
तो..उसे भी रुला डाले दुनिया
गर शाम गुजरती है मयखाने में
तो समां से पूछो
क्यूं दीवाने डूब रहे है
दो घूंट शराब में
हर खिलती कली पर
भौरां मेहरबान है..
कौन बताएं उन्हें कि
ये हरकत नादान है..
दिख रही है जिंदगी
उजड़ते पेड़ की तरह
हर तरफ दरारें है इसमें
टूटती शाख की तरह
तहखानों में बंद ना होगी
जिंदगी फिर इस कदर
हम ढूंढ़ते रहेंगे..चांदनी
पूर्णिमा की रात की तरह.
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