Kamal Hasan Vishwaroopam: We all together


जब भी किसी फिल्म, किताब, पेंटिंग या कलाकार/लेखक का विरोध होता हैं। मैं देखता हूं आमतौर तीन तरीके के लोग सामने आते हैं। जैसे एक पक्ष, जो आपका आंख मूंदकर विरोध करता हैं। उसे आपके तर्क और दलीलों से कोई लेना देना नहीं होता। उसे विरोध करना है और वह करता है। उसके बाद एक ऐसे लोगों का समूह उभरता है जो दूर से ही आपको समझाता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। इससे लोगों की भावनाएं आहत होती है। अगर ऐसा करना ही था, तो उसे पूछ लेना चाहिए था कि वो ऐसा करने जा रहा है।

इसके बाद एक तीसरा वर्ग, जो आपका दूर से समर्थन करता हैं। यानि लग्घी से पानी पिलाता है.. आप अपने खिलाफ हो रहे तर्कहीन विरोध से जब-जब झुंझलाएंगे वो दूर से ही आपसे कहेगा..भाई मैं तेरे साथ हूं..लेकिन सार्वजनिक स्थानों पर आपके साथ खड़ा नहीं होगा। क्योंकि उसे डर रहता है कि अगर वो आपका खुले तौर पर समर्थन करता है तो बाकि पक्ष उसके खिलाफ हो जाएंगे। लिहाजा वो लग्घी से पानी पिलाता रहता है और आप गाहे बगाहे झुंझलाते रहते हैं।

कमल हसन की फिल्म को लेकर जो ताजा हंगामा मचा है। उसके परिप्रेक्ष्य में ऊपर कही गई बातें मेरे जेहन में बार बार उमड़ती हैं। ऐसा कम देखने को मिलता है कि एक कलाकार के साथ जनता का समर्थन उभर कर आए। विरोध के बीच कलाकार अकेला पड़ जाता हैं। यहां मेरा तात्पर्य सिर्फ कमल हसन से नहीं हैं। जब मैं एक कलाकार के खिलाफ बेजा हंगामों की पटोली टटोलता हूं तो कई चेहरे उभरकर सामने आते हैं। इनमें मंटो, मकबूल फिदा हुसैन, इफ्तिखार अली गिलानी, आमिर खान, सलमान रुश्दी, शाहरुख खान, या फिर फिल्मों की बात करें तो फिराक, फना, विश्वरुपम, ब्लैक फ्राइडे जैसे कई नाम और चेहरे याद आते हैं। इनकी फेहरिस्त और लंबी हो सकती है, लेकिन सबकी कहानी कहीं ना कहीं एक दूसरे से मेल खाती हैं।

इफ्तिखार अली गिलानी को सरकार सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लेती है कि उनके कंप्यूटर में कुछ दस्तावेज पाए जाते हैं। जिसके बारे में सरकार ने दलील दी कि ये संवेदनशील दस्तावेज थे। मने जो भारत की सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न कर सकते थे। मंटो को समाज की कड़वी सच्चाई लिखने के लिए विरोध और मुकदमों का दंश झेलना पड़ा। एमएफ हुसैन को एक पेंटिंग के लिए अपना मुल्क ही त्याग देना पड़ा। आमिर खान को नर्मदा बचाओ आंदोलन का समर्थन करना भारी पड़ा। जबकि रुश्दी को सैटनिक वर्सेज लिखने के लिए..जबकि शाहरुख को खान होने के लिए शिवसैनिक पाकिस्तान भेजते रहते हैं।

विश्वरुपम को लेकर जो विवाद हुआ है। उससे आहत होकर कमल हसन ने देश छोड़ने तक की धमकी दे डाली। उनका क्रोधित होना लाजिमी हैं। लेकिन इस मुल्क में अब ऐसी परिस्थितियां बन रही है कि कुछ समाज विरोधी तत्व एक कलाकार को पाकिस्तान भेजने लगते हैं। तो अपनी फिल्म के विरोध से आजिज एक कलाकार खुद ही सेकुलर स्टेट की तलाश में देश छोड़कर जाने की बात कहने लगता हैं।

मुझे इस अंधाधुंध तर्कहीन विरोध का कोई हल नहीं दिखता। लेकिन इतना समझ आ रहा है कि ऐसे विरोध के बीच सरकारें अप्रासंगिक लगने लगी हैं। सरकार की बनाई एक संस्था आपको अपनी फिल्म रिलीज करने का परमिशन देती हैं और उसके बाद कुछ समूह आपका विरोध करने लगते है। इस बात को लेकर कि आपकी फिल्म में कुछ ऐसे सीन है। जिससे उनकी भावनाएं आहत हुई हैं।

सामाजिक सौहार्द का हवाला देते हुए सरकार आपके ऊपर प्रतिबंध थोप देती हैं। और आप कुछ कर नहीं पाते हैं। कुछ लोग आपके समर्थन में आते हैं। लेकिन आपकी कला कठघरे में ही खड़ी दिखाई देती हैं। उस पर से प्रतिबंध नहीं हटता।

इन सबके बीच मैं आपका ध्यान ऐसे ही एक प्रकरण की तरफ आकृष्ट करना चाहता हूं। हाल ही में एनएसडी की ओर से आयोजित भारत रंग महोत्सव के तहत ड्रामा का मंचन करने के लिए पाकिस्तानी अजोका थिएटर ग्रुप भारत दौरे पर था। लेकिन एलओसी पर हुई तनातनी के बाद भारत सरकार ने अजोका थिएटर ग्रुप को भारंगम में ड्रामा कौन है यह गुस्ताख का मंचन करने की अनुमति नहीं दी। सरकार को डर था कि पाकिस्तानी थिएटर ग्रुप अगर ड्रामा का मंचन करता है तो सामाजिक समरसता बिगड़ सकती हैं। अजोका थिएटर ग्रुप को इस फैसले से निश्चित तौर पर बड़ी निराशा हुई होगी। लेकिन प्रगतिशील संगठनों की मदद से अजोका थिएटर ग्रुप ने महज दो दिन बाद दिल्ली में कौन है यह गुस्ताख का मंचन किया। यहीं नहीं इसके बाद पाकिस्तानी कलाकारों ने जवाहर लाल यूनिवर्सिटी के प्रांगण में भी ड्रामा का मंचन किया।

प्रगतिशाल संगठनों और सामाजिक समरसता के प्रति दृढ़निश्चयी लोगों की मदद से सरकार की मनाही के बावजूद पाकिस्तानी थिएटर ग्रुप ने देश की राजधानी और एक केन्द्रीय संस्थान में अपनी प्रस्तुति दी।

सरकार जब सामाजिक ताना बाना बिगड़ने का हवाला देकर किसी पर प्रतिबंध थोपती है, उसका समाधान क्या हैं। क्योंकि विश्वरुपम को लेकर जो माहौल बना, उसमें राज्य और केन्द्र की सरकार अपंग नजर आने लगी। सरकार तमिलनाडु में एक फिल्म के प्रदर्शन को प्रोटेक्ट करने में नाकाम दिखने लगी। इससे पहले भी केन्द्र और राज्य की सरकारें एक लेखिका, पेंटर, किताब को सुरक्षा देने में नाकाम रही।

इन सबके बीच अजोका थिएटर ग्रुप के लिए जिस तरह आम नागरिकों के बीच माहौल बना, और एनएसडी के इतर उन्हें नाटक के मंचन के लिए मंच प्रदान किया गया। उसने उम्मीद की एक किरण जगाई हैं कि अगर सरकारों के क्रूरतम और तर्कहीन फैसलों के बावजूद जनता चाहे तो सब कुछ संभव हैं। जिस तरीके से तर्कहीन विरोध के बीच सरकारें अप्रासंगिक लगने लगती है। उसी तरह नागरिकों की एकजुटता सरकारी प्रतिबंध के फैसलों को अप्रासंगिक बना सकती है।

इस प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता के बीच एक तस्वीर यह भी हैं। दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ उभरे असाधारण आक्रोश से पहले देश का एक बड़ा वर्ग हनी सिंह का दीवाना (माफ कीजिएगा, हनी सिंह के मुरीदों में मैं नहीं, लेकिन दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और एक महिला मंत्री वालिया का नाम हैं) था। लेकिन ज्यों ही जनपथ और रायसीना हिल्स की चौहद्दी को युवाओं ने लांघकर महामहिम के बंद दरवाजे पर विरोध की दस्तक दी। हनी सिंह के वाहियात गानों पर पाबंदी की मांग उठने लगी। वो वर्ग जो एक समय हनी सिंह को अपने पॉकेट में रखता था। उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने लगा। हनी सिंह पर मुकदमें दायर किए गए। इसका असर ये हुआ कि कई ऑनलाइन माध्यमों से हनी सिंह ने अपने गाने हटा लिए। उनके वकील का कहना था कि उनके मुवक्किल के खिलाफ जानबूझकर ऐसा माहौल बनाया जा रहा था। लेकिन विरोध की लहर में हनी सिंह को अपने गानों के लिए सार्वजनिक तौर पर विरोध झेलना पड़ा। चाहे ये मांग कहीं से भी उठी हो।

वहीं इफ्तिखार अली गिलानी के मामले में बहुतों को ये पता था कि वे दस्तावेज जिनकी दलील देकर उन्हें गिरफ्तार किया गया। वो इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध हैं और कोई भी उसे आसानी से अपने निजी कंप्यूटर में संरक्षित कर सकता हैं। लेकिन इफ्तिखार के समर्थन में बहुत कम लोग आएं। एक वृहद जनसमर्थन उन्हें नहीं मिला। बाद में उन्होंने अपनी लड़ाई खुद लड़ी और काल कोठरी में एक लंबा वक्त बिताने के बाद बाहर आए।

तस्लीमा नसरीन और एमएफ हुसैन के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्हें लोगों का समर्थन नहीं मिला। उनके पक्ष में होने का दावा करने वाले लोग लग्घी से पानी पिलाते रहे। लेकिन उन्हें देश छोड़ना ही पड़ा। लग्घी से पानी पिलाने वाले लोग अगर तर्कहीन विरोध के बीच चौराहे पर अकेले खड़े कलाकार के कंधे पर हाथ रखकर कहते, हम तुम्हारे साथ है। तब शायद एक कलाकार को दूसरे देश भेजने के लिए नारे नहीं लगाए जाते और अपनी फिल्म के विरोध से आजिज कलाकार को एक सेकुलर देश ढूंढ़ने के बारे में सोचना नहीं पड़ता।   

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