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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साइकिल का पंक्चर

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photo Courtesy_googl e दिन के बारह बज रहे होंगे। जेठ का महीना था, शहर और देहात को जोड़ने के लिए गंगा के ऊपर बने तीन किलोमीटर लंबे पुल पर हवा कुछ ज्यादा ही तेज ही थी। बैरियर के नीचे साइकिल पंक्चर होने के बाद बाबू पैदल ही पुल पार करने के मूड में था। हालांकि अब उसे साइकिल को ठेलना पड़ रहा था। दरअसल उसकी साइकिल का पिछला पहिया पंक्चर हो गया था और उसके पास इतने पैसे नहीं थे वह उसे ठीक करा सके। हां ये सच हैं।  यकीन मानिए, उसका बाप उसे मात्र एक रुपया देता था। जब वह अपने कॉलेज के लिए जाता था। वह भी महीने में कभी कभार, जून 2008 में एक रुपए में क्या मिलता होगा ? आपको बता दूं उस जमाने में साइकिल का पंक्चर भी पांच रुपए में बनता था। लेकिन उसके लिए ये अमूमन रोज की ही बात थी। कभी अगला टायर पंक्चर हो जाता तो, कभी पिछला, कभी चेन खराब हो जाती तो कभी ब्रेक काम नहीं करते, यहां तक की उस साइकिल की सीट भी टूटी हुई थी। जिस पर ठीक से बैठा जा सके। लेकिन मुफलिसी से घिरे होने के बावजूद वह घबराता नहीं था। हां कभी-कभी वह चिढ़ने लगता था। उस दिन भी उसके मन में यहीं सवाल उठ रहे थे। कैसी है उसकी ये जिंदगी

दस रुपए की चूड़ी

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पूरा मुहल्ला जग उठा है कराहें सुनकर आह..आह ये बहन, अधेड़ मां और मुहल्ले की नई दुल्हन की आह है जो आज फिर मार खाई है अपने हत्यारे पति से वो रोज गांजा, शराब पीकर गला दबाता और केरोसिन छिड़कता है उसका गुनाह सिर्फ इतना भर था उसने दस रुपए की चूड़ी खरीद ली थी बिना बताए अपने हाथों के नंगेपन को दूर करने के लिए मासूम सी बच्ची दहाड़े मार रही थी जब वो उसे लहुलुहान कर रहा था हर रोज मारता और गला दबाता है पर ना जाने क्यों वह प्रतिकार नहीं करती क्यों सहती है ये जुल्म क्यों नहीं फोड़ती है उसका सर क्या इतना भी हक नहीं है उसका एक पत्नी है वो एक मां है कई सालों से झेल रही है वो ये जुल्म क्या उसके हिस्से में सिर्फ मार है क्यों अपने हक को चोरी समझ लेती है वो क्यूं हर बार चुप रह जाती है वो

टूट जाएगा सिलसिला उधार का

हर सांस उधार मांग रखी है हमने खुदा से मांगकर बढ़ता जा रहा है वक्त का कारवां शायद मेरी सिफारिशों का कोई असर नहीं तुमसे मिलने की उमंगे, हिलोरे मार रही है सब्र के बांध में दरारें पड़ रही है डर है कहीं, तूफां वक्त से फहले ना आ जाए थम जाएगी मेरी सांसों की हलचल टूट जाएगा सिलसिला उधार का जब भी आओगे हमसे मिलने को मिल जाएगी, कहीं रेत तो कहीं पानी की हलचलें

आइने से पूछ रहा हूं

उनकी पलकें उठी है,  मेरी सुबह के लिए चांद सा रोशन उनका चेहरा,  मेरी शाम के लिए बोलती आंखें कंपकपाते होंठो से,    होश गवांए सुन रही है  मेरी आंखे मोहब्बत के दो पल के लिए,    फरियाद की हमने फूटते लबों से  उनकी नजरों ने हां की है आइने से पूछ रहा हूं,    खुद को संवारने के तरीके उस वक्त की रूमानियत में निगल रहा हूं, अ पनी सांसे

तुम्हारी छुअन से

उस रात की महफिल के बाद. जगह की कमी से.. तुम सोई थी मेरे बगल में. जिस्म सिहर उ ठा.. तुम्हारी इक छुअन से...                          

वो कली

काले लिबास में लिपटी  वो कली. सबके दिल को चुराए  उसकी हंसी.. तीरे-ए-नजर कातिल बनी  वो कली. मासूमियत भरे चेहरे.. काली जुल्फें और शराबी होंठ. कितनी हसीन  वो कली..

हर लौ में

हर शाम तेरी उम्मीद में. दिया जलाते है.. शाम ढलते, मेरी नजरें. तुम्हें ढूंढ़ती हर महफिल में.. मेरी रातें कट जाती है. तेरे शहर की गलियों में.. लेकिन तुमसे मिलने की उम्मीद. दिये की हर लौ में नजर आती है.....

हवाएं गुदगुदाती है

जाम बनके हर प्याले में नजर आती हो. नशा बनके हमपे छा जाती.. हर महफिल में बस तू ही तू. ये मदमस्त हवाएं गुदगुदाती है.. जब याद बनके. तू हमें रूला जाती हो..