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एक पत्र तुम्हारे नाम...

ये सिर्फ तुम जानती हो, या तुम्हारी धड़कनें कि मेरी चाहते क्या हैं ? मैं किस तरह जीना चाहता हूं और मेरी जरुरतें क्या हैं। चाहे वे भावनात्मक हो या भौतिक, शारीरिक हो या मानसिक। ये सब तुम्हें पता हैं। मुझे याद है कि इन सबके के बारे में मैने तुम्हें कभी नहीं बताया। लेकिन तुम्हें ये सब पता हैं। उन दैनिक चीजों के अलावा कि मैं कब कुछ खाना चाहता हूं और कब तुमसे दुलार के बहाने प्यार पाना चाहता हूं। तुम्हारे साथ हंसी ठिठोली के रास्ते.. लेकिन ये सब तुम्हे कैसे मालूम हैं और तुम्हीं क्यों जानती हो, मेरी निजी भावनाओं का इतना ध्यान कैसे रख पाती हो। जबकि हम लोगों के संबंध सिर्फ एक दायरे तक हैं। जो सार्वजनिक तौर पर बेहद तंग हैं और हमारे बीच एक बड़ी दूरी हमेशा बनी रहती हैं। सिर्फ साल में एक दो सार्वजनिक मुलाकातों को छोड़कर, लेकिन जब भी तुमसे मिलता हूं ऐसा लगता है। जैसे तुम्हें सब पता हो। जब मैं तुमसे दूर था, उस वक्त की खुशी और गम भी। ऐसा महसूस होता है तुमसे बढ़कर मेरा चाहने वाला कोई नहीं। तुमसे मिलके जब वापस आता हूं तो सोचता हूं कि और भी तो लोग है मेरे दायरे में। लेकिन मेरे मन के भावों को सिर्फ

बदन की ऐंठन

बदन की ऐंठन तुम्हारे स्पर्श से खुल रही है रिस रिस कर मैं आहिस्ता आहिस्ता मीठे दर्द में डूबा जा रहा हूं      2 तुमने याद किया हाथों में खुजली हुई पैरों में गुदगुदी सी आई पलकों ने तुम्हारे होने की हामी भरी और फिर हिचकियों ने जगाया धड़कनों के बंद दरवाजे खोलने को जिसे तुमने खटखटाया था मेरा नाम लेकर..