अटकना

अंकुर जायसवाल
आज इक कविता लिखने बैठा मैं,
क्योंकि मैंने दो लाइनें सोचीं थी
या कह लूं महसूस की थी कुछ दिनों से
और सरलता से कहूँ तो
जो कुछ भी महसूस किया था मैंने कुछ दिनों में
वो उन दो लाइनों में था |

तो आज सब कामों को निपटा कर
लिखने बैठा मैं

पर दिक्कत यह थी कि कविता तो
दो लाइनों कि होगी नहीं,
और शायरी करने मुझे आती नहीं

फिर भी शुरू किया मैंने कविता को लिखना

दो लाइनों का अंत लेकर
चार लाइनों का छंद लिख दिया मैंने ,

अब इन चार लाइनों के साथ
अंतिम दो लाइनों की दूरी को तय करने निकला
और बीच में अटक सा गया मैं

जैसे अभी इस कविता को
आगे लिखने में अटक गया हूँ |

यह ठीक वैसा ही अटकना है या उलझना है
जैसे शुरू करते हैं हम सफर सपनों को पूरा करने का
या सपनों को सच करने का

पर उन दो पंक्तियों का सपना कभी
असली पन्नों पर नहीं उतर पाता

अटक जाते हैं हम
चार पंक्तियों का काम कर के
और फिर लिखने लगतें हैं एक और कविता  
इस अटकने पर |

और रह जाती हैं वह दो मूल पंक्तियाँ
सपनों की तरह सपनों में......                


अंकुर जायसवाल

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