वो निकलते रहेंगे अपने सफर पर...


इस देश की एक बड़ी आबादी आज भी लम्बी यात्राओं के लिए भारतीय रेलवे पर निर्भर हैं। कभी जनरल में तो कभी आरक्षित बोगियों में, क्योंकि वातानुकूलित बोगियों में यात्रा करने की इजाजत इनकी जेब नहीं देती। जनरल बोगियों में यात्रा करने वालों की संख्या हजारों नहीं लाखों में हैं। शायद भारतीय रेलवे से रोजाना यात्रा करने वालों में 80 फीसदी से भी ज्यादा। हर साल ये लोग रेलमंत्री से उम्मीद लगाए रहते है कि रेल मंत्रालय उनके लिए भी कुछ करेगा। ताकि वो लोग भी हैप्पी जर्नी का मंगलमय होना महसूस कर सके।

एक्सप्रेस और मेल ट्रेनों से यात्रा करने वाले लोग अकेले नहीं होते। उनके साथ बीवी, बच्चे और परिवार वाले भी होते हैं। ट्रेने वैसे भी समय से ट्रैक पर नहीं होती हैं। आम यात्रियों का यह हुजुम सब्र छोड़कर जल्दी से जल्दी ट्रेन में सवार होने को बेताब रहता हैं। लेकिन यह बेताबी रेलवे पुलिस के डंडे से ठण्डी पड़ जाती है।

बाद मुद्दत के ट्रेन को हरी झंडी दिखलाई जाती है और जीआरपी वाले बोगियों में चढ़ जाते है। सीट दिलाने के नाम पर सौ – पचास रुपये की वसूली होने लगती है। सौ रुपये लेकर किसी भी बैठे व्यक्ति को डंडा दिखाया और जिसे चाहा उसे बिठा दिया। हवा का एक झोंका पहले दरवाजे से होकर दूसरे से निकला भी नहीं होता है कि अगले स्टेशन पर लफंगों और गुंडों की जोर आजमाइश शुरु हो जाती हैं। गुंडों का यह झुंड बिहारी साले...करते हुए सीटों से लोगों को खींचकर नीचे बिठा देता है। कुछ देर पहले सौ – पचास वसूलकर गए जीआरपी वाले मरे साले..जाए भाड़ में कहते हुए.. अपने कोने में दुबक गए होते हैं।

अगर आप कोलकाता से पटना की यात्रा कर रहे है तो किन्नरों से पार पा जाए ये आसान नहीं। भद्दी गालियां सुनने और सौ पचास देने के लिए तैयार रहिए। इस यात्रा में इनके कितने झुंड आपको मिलेंगे। इसकी कोई गिनती नहीं। अगर एक ने पचास वसूला तो दूसरा इससे कम में मानेगा नहीं। अगर आपकी जेब खाली है तो उनकी भद्दी गालियां और रवैया आपका हुलियां बिगाड़ने के लिए काफी हैं।

इन तमाम परेशानियों के बावजूद भी आपको नींद आ गयी हो तो छींनाझपटी और जहरखुरानीं आपकी नींद उड़ा देगी। लेकिन रेलवे सुरक्षा बलों से किसी तरह की कोई उम्मीद मत पालिए। क्योंकि इसके लिए जीआरपी खुद को जिम्मेदार नहीं मानती। शौचालयों में ठुँसे और लगेज काउंटरों पर लटके यात्रियों को देखकर कोई भी कह सकता है कि जिन्दगी के इस सफर का रंग कैसा है। खड़े होकर ही हजारों किलोमीटर की यात्रा कर जाने वाले ये लोग इसके आदी हो चुके है। लेकिन रेल प्रशासन के कानों पर फिर भी कोई जूँ नहीं रेगतीं। बोगियों में पानी का नल खराब हो चुका होता है, सफाई की उम्मीद इन यात्रियों को होती नहीं हैं। हर रोज हजारों लोग इस तरह की यात्रा करने को विवश हैं। लेकिन हर साल नय़ी योजनायें शुरु करने वाला रेल मंत्रालय इन समस्याओं का स्थिर हल नहीं ढूँढ पाता।

रेलमंत्री ने बजट पेश कर दिया हैं। इस बार भी कुछ नयी गाड़ियाँ शुरु हुई। रेल यात्रा को बेहतर बनाने के लिए कई योजनाएँ भी उनके पिटारे से निकली हैं। लेकिन जनरल बोगियों में सफर करने वालों को कुछ मिला तो वो है किराए का जस का तस रहना। इन सबसे बेखबर यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा का ख्याल रेल प्रशासन और रेलमंत्री को हर बार की तरह थोड़ा सा ही आया। इन सबसे बेखबर रोजाना यात्रा करने वाले यात्रियों में अस्सी फीसदी संख्या वाले ये मुसाफिर तमाम समस्याओं के बाद भी दरवाजों से लटककर, उड़ती जुल्फों के बीच रेल प्रशासन से बिना किसी उम्मीद के अपने सफर पर निकलते रहेंगे।





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